अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता(342) प्रभु ताते उर हतइ न तेही

 

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

जानकी जी को जब त्रिजटा ने बताया कि सिर और भुजाएं कटने पर भी रावण की मृत्यु नहीं हो रही है तो सीता जी के मन में चिंता हो गयी। वे तरह-तरह से विलाप करने लगीं तो त्रिजटा ने बताया कि प्रभु श्रीराम रावण के हृदय में तीर इसलिए नहीं मार रहे क्योंकि उसके हृदय में अनेक भुवन हैं तो तीर से सभी का नाश हो जाएगा। त्रिजटा बताती हैं कि प्रभु श्रीराम रावण को तीरों से मारकर व्याकुल कर देंगे तब उसके हृदय से सीता का ध्यान नहीं रहेगा और उसी समय प्रभु
श्रीराम रावण का संहार कर देंगे। यही प्रसंग यहां पर बताया गया है। अभी तो सीता जी त्रिजटा की बात सुनकर चिंतित हैं-
मुख मलीन उपजी मन चिंता, त्रिजटा सन बोलीं तब सीता।
होइहि कहा कहसि किन माता, केहि विधि मरिहि विस्व दुख दाता।
रघुपति सर सिर कटेहुं न मरई, विधि विपरीत चरित सब करई।
मोर अभाग्य जिआवत ओही, जेहिं हौं हरिपद कमल बिछोही।
जेहिं कृत कपट कनक मृग झूठा, अजहुं सो दैव मोहि पर रूठा।
जेहिं विधि मोहि दुख दुसह सहाए, लछिमन कहुं कटु बचन कहाए।
रघुपति विरह सविष सर भारी, तकि तकि मार बार बहु मारी।
ऐसेहुं दुख जो राख मम प्राना, सोइ विधि ताहि जिआव न आना।
बहु विधि कर विलाप जानकी, करि करि सुरति कृपा निधान की।
त्रिजटा के माध्यम से युद्ध भूमि की कथा सुनकर सीता जी का मुख उदास हो गया, मन में चिंता उत्पन्न हुई। सीता जी त्रिजटा से बोलीं-हे माता, बताती क्यों नहीं कि अब क्या होगा? सम्पूर्ण विश्व को दुख देने वाला यह रावण किस प्रकार मरेगा? श्री रघुनाथ जी के वाणों से सिर कटने पर भी नहीं मरता। विधाता सारे चरित्र विपरीत (उलटे) ही कर रहा है। सीता जी कहती हैं कि मेरा दुर्भाग्य ही उसे जिला रहा है जिसने मुझे भगवान के चरण कमलों से अलग कर दिया है, जिसने कपट का स्वर्ण मृग बनाया था वही दैव अब भी मुझसे रूठा हुआ है जिस विधाता ने मुझसे दुःसह दुःख सहन कराए और लक्ष्मण जी को कड़वे बचन कहाए जो श्री रघुनाथ जी के बिरह रूपी बड़े विषैले वाणों से तक-तक कर मुझे बहुत बार मारकर अब भी मार रहा है और ऐसे दुख में भी जो मेरे प्राणों को रख रहा है वही विधाता उस रावण को जिला रहा है, दूसरा कोई नहीं। कृपा निधान श्रीराम जी को याद करके जानकी जी इस प्रकार तरह-तरह से विलाप कर रही हैं।
कह त्रिजटा सुनु राजकुमारी, उर सर लागत मरइ सुरारी।
प्रभु ताते उर हतइ न तेही, एहि के हृदयं बसति बैदेही।
एहि के हृदयं बस जानकी जानकी उर मम बास है।
मम उदर भुवन अनेक लागत बान सब कर नास है।
सुनि बचन हरष विषाद मन अति देखि पुनि त्रिजटा कहा।
अब मरिहि रिपु एहि विधि सुनहि सुंदरि तजहि संसय महा।
काटत सिर होइहि विकल छुटि जाइहि तव ध्यान।
तब रावनहि हृदय महुं मरिहहिं रामु सुजान।
अस कहि बहुत भांति समुझाई, पुनि त्रिजटा निज भवन सिधाई।
सीता जी जब इस तरह से विलाप करने लगीं तो त्रिजटा ने कहा हे राजकुमारी मेरी बात सुनो, हृदय में तीर लगने से देवताओं का शत्रु रावण मर जाएगा लेकिन प्रभु श्रीराम उसके हृदय में बाण इसलिए नहीं मारते क्योंकि इसके हृदय में जानकी जी (आप) बसती हैं अर्थात मोह वश आपको इतना चाहने लगा और हृदय में बसा लिया। अब प्रभु श्रीराम यही सोचकर रुक जाते हैं कि रावण के हृदय में जानकी का निवास है, जानकी के हृदय मंें मेरा निवास है और मेरे उदर में अनेकों भुवन हैं, इसलिए रावण के हृदय में बाण लगते ही सभी भुवनों (लोकों) का नाश हो जाएगा। त्रिजटा की यह बात सुनकर सीता जी के मन में विषाद भी हुआ और खुशी भी। विषाद इस बात का कि मेरे कारण ही रावण की मौत नहीं हो रही और खुशी इस बात की है कि प्रभु श्रीराम मेरे हृदय में बसे हुए हैं। सीता जी के दुख का निवारण करते हुए त्रिजटा ने कहा हे सुन्दरी महान संदेह का त्याग कर दो। अब यह सुनो कि रावण किस प्रकार मरेगा। त्रिजटा ने कहा कि सिरों और भुजाओं को बार-बार काटे जाने से जब रावण व्याकुल हो जाएगा तब उसके हृदय से तुम्हारा
ध्यान छूट जाएगा, उसी समय अन्तर्यामी सुजान श्रीराम जी रावण के हृदय में वाण मारेंगे। ऐसा कहकर और सीता जी को बहुत प्रकार से समझाकर त्रिजटा अपने घर चली गयी।
राम सुभाउ सुमिरि वैदेही, उपजी विरह विथा अति तेही।
निसिहि ससिहि निंदति बहु भांती, जुग सम भई सिराति न राती।
करति विलाप मनहिं मन भारी, राम बिरहं जानकी दुखारी।
जब अति भयउ विरह उर दाहू, फरकेउ बाम नयन अरु बाहू।
सगुन विचारि धरी मन धीरा, अब मिलिहहिं कृपाल रघुवीरा।
श्रीरामचन्द्र जी के स्वभाव का स्मरण करके जानकी जी को अत्यंत विरह की व्यथा उत्पन्न हुई। वे रात और चन्द्रमा की बहुत प्रकार से निंदा कर रही हैं। चंद्रमा और रात वियोग में दुःखदायी मानी जाती हैं। सीता जी कहती हैं कि रात एक युग के समान बड़ी हो गयी है वह बीतती ही नहीं। जानकी श्रीराम जी के वियोग में दुखी होकर मन ही मन भारी विलाप कर रही हैं। बिरह के कारण जब उनका हृदय लगभग जलने लगा तभी उनका बायां नेत्र और बाहु (हाथ) फड़क उठे। शुभ शकुन समझकर उन्होंने अपने मन में धैर्य धारण किया कि अब कृपालु रघुवीर अवश्य मिलेंगे।
इहां अर्ध निसि रावनु जागा, निज सारथि सन खीझन लागा।
सठ रन भूमि छड़ाइसि मोही, धिग धिग अधम मंदमति तोही।
तेहिं पदगहि बहु विधि समुझावा, भोरू भएं रथ चढ़ि पुन धावा।
सुनि आगवनु दसानन केरा, कपिदल खर भर भयउ घनेरा।
जहं तहं भूधर बिटप उपारी, धाए कटकटाइ भट भारी।
यहां लंका में आधी रात को रावण की मूर्च्छा दूर हुई तो वह अपने सारथी पर क्रोधित होकर कहने लगा अरे मूर्ख तू मुझे रणभूमि से यहां क्यों ले आया। अरे अधम, अरे मंदमति तुझे धिक्कार है, तुझे धिक्कार है। सारथी ने चरण पकड़कर रावण को बहुत प्रकार से समझाया कि किन हालत में उसे रणभूमि से लेकर आना पड़ा। सबेरा होते ही रावण रथ पर चढ़कर फिर दौड़ा। रणभूमि में रावण का आना सुनकर वानरों की सेना में बड़ी ही खलबली मच गयी। वानरों के भारी योद्धा जहां-तहां से पर्वत और वृक्ष उखाड़कर क्रोध से दांत किट किटाकर दौड़ पडे़े। -क्रमशः (हिफी)

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