अध्यात्मप्रेरणास्पद लघुकथा 

छान्दोग्य उपनिषद से महर्षि उषस्ति की कथा

परमात्मा को जाने बिना यज्ञ आदि क्रियाओं को करना उचित नहीं

बहुत समय पहले की बात है। कुरू प्रदेश के इभ्य नामक गांव में एक ऋषि रहते थे जिनका नाम था-उषस्ति चाक्रण! उनकी पत्नी भी उनके साथ रहती थीं, जिसका नाम आटिकी था। दोनों तप-स्वाध्याय में लीन रहकर शांतिपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करते थे। एक बार प्रदेश में घनघोर वर्षा हुई। मोटे-मोटे आलेों से धरती पट गयी। इसके फलस्वरूप फसल चैपट हो गयी। अकाल की स्थिति पैदा हो गयी। लोग व्याकुल होकर भोजन की तलाश में निकल पड़ा। कई दिन हो गए, किंतु कहीं भी उन्हें अन्न के दर्शन नहीं हुए।
एक दिन वे भोजन की तलाश में इधर-उधर भटक रहे थे कि आटिकी को कमजोरी के कारण चक्कर आ गया। ऋषि ने उसे एक पीड़े के नीचे लिटाया और जब आटिकी को होश आ गया तो भोजन की तलाश में एक गांव की ओर चल पड़े।
वह गांव ऐसे लोगों का था जहां के लोग हाथियों को पालते थे। वहां उन्होंने अपने घर के बाहर एक महावत को उड़द खाते देखा। ऋषि चाक्रायण उसके पास पहुंचे और उससे याचना की भाई मैं बहुत भूखा हूं। कई दिन से अन्न का एक दाना भी नहीं खाया। तुम यह उड़द खा रहे हो, यदि इसमें से मुझे भी थोड़े से उड़द खाने को दे दो तो मेरे प्राण बच जाएंगे।
ऋषि की ऐसी दीनता-भरी याचना सुनकर महावत का हृदय विवश हो गया। वह बोला, ‘ऋषिवर! मेरे पास इस पात्र में जितने उड़द रखे हैं बस यही हैं और ये मेरे जूठे हो चुके हैं। मुझे संकोच हो रहा है कि ये जूठे उड़द कैसे आपको दूं?
ऋषि बाले, ‘आपतकाल में सब कुछ चलता है भाई, फिलहाल तो प्राण बचाने की समस्या है। तुम यह जूठे उड़द ही मुझे दे दो। इन्हें खाकर मेरे प्राण बच जाएंगे। तब महावत ने थोड़े-से उड़द चाक्रयण को दे दिए। चाक्रायण ने कुछ उड़द वहीं खा लिए और शेष उड़द एक पोटली में बांध लिए।
जब वे चलने को हुए तो महावत ने उनसे कहा, ‘ऋषिवर/उड़द खाने के बाद जल भी तो पी लीजिए।’
उषस्ति बोले ‘नहीं मैं जल ग्रहण नहीं करूंगा, क्योंकि यह तुम्हारा जूठा किया हुआ है।’
‘मगर ये उड़द भी तो मेरे जूठे ही थे।’ महावत बोला, जब आपने जूठे उड़द खा लिए तो जूठा पानी पीने में कैसा संकोच?
महावत के ऐसा कहने पर महर्षि ने कहा, ‘मैंने कहा था न आपातकाल में सब चलता है। जब प्राणों पर आ बनी तो जूठे उड़द भी खा लेने में कोई बुराई नहीं है। रही बात जूठा जल पीने की, तो भाई, जल तो मुझे कहीं अन्यत्र भी मिल सकता है। तुम्हारा बहुत-बहुत धन्यवाद, जूठे ही सही, तुमने मुझे अपने भोजन के उड़द देेकर मेरा जीवन बचा लिया।’
महावत से विदा लेकर उषस्ति थोड़े-से उड़द की पोटली लिए अपनी पत्नी के पास पहुंचे और वह पोटली अपनी पत्नी को दे दी। उनकी पत्नी को किसी सहृदय व्यक्ति से पहले ही काफी भिक्षा मिल चुकी थी, अतः उसने वह पोटली एक ओर रख दी। दोनों रात हो जाने पर सुखपूर्वक सो गए।
दूसरे दिन प्रातः काल जब उषस्ति सोकर उठे तो उन्हें अपनी दुर्दशा का ध्यान आया। वे पत्नी से बोले, प्रिये! आज मुझे थोड़ा-सा अन्न भी प्राप्त हो जाता तो उसे खाकर मेरी भूख शांत हो जाती और मैं बाहर जाकर कुछ कमा लाता। मैंने सुना है कि पड़ोसी राज्य का राजा त्रिविकम एक यज्ञ करवा रहा है। इस यज्ञ में मुझ ऋत्विक (यज्ञ करवाने वाला) का कार्य मिल जाता। उससे प्राप्त दक्षिणा से हमारा काफी कुछ कार्य चल जाता।’
आटिकी बोली, ‘स्वामी! लीजिए, कल जो उड़द आपने मुझे दिए थे, वे मैंने संभालकर रख दिए थे।  आप इन्हें खाकर जल पी लें और स्वस्थ मन से यज्ञ में चले जाएं।
उषस्ति ने संतोष की सांस ली और वे उड़द खाकर यज्ञ में चले गए। जब वे यज्ञस्थल पर पहुंचे तो वहां यज्ञ की सारी तैयारियां पूरी हो चुकी थीं यज्ञ करवाने वाले आचार्यगण अपने आसनों पर बैठे हुए थे। वे वेद मंत्रों द्वारा परमात्मा की स्तुति करने के लिए तैयार थे। मंत्रों का उच्चारण करने में तो वे कुशल थे, किंतु तत्वज्ञानी न होने के कारण उन्हें इस बात की जानकारी नहीं थी कि जिन मंत्रों का वे पाठ करेंगे, उसमें किस देवता (परमात्मा़) की स्तुति की गई है। उषस्ति वहां पहुंचे तो उन्होंने आचार्यणों से पूछ लिया, ‘प्रस्तोता! क्या तुम्हें मालूम है कि वह देवता कौन है जिसकी स्तुति और प्रशंसा के मंत्र तुम पढ़ने के लिए जा रहे हो?
वहां बैठे सभी यज्ञिकों ने उस देवता से अपनी अनभिज्ञता जताई। तब उषस्ति ने चेतावनी भरे स्वर में कहा, ‘बिना उस देवता को जाने स्तुति के मंत्रों का पाठ तो वैसा ही है जैसा राख में घी का होम करना। इससे तो लाभ के स्थान पर हानि ही होने की संभावना है। ऐसा करने से तो आपके प्राण भी जा सकते हैं।’
उषस्ति की चेतावनी सुनकर सभी यज्ञ कराने वाले कर्मकांडी ऋत्विक चुप होकर बैठ गए।
यह देखकर राजा ने उषस्ति ऋषि से पूछा, मैं श्रीमान का ठीक-ठीक परिचय जानना चाहता हूं।’
उषस्ति ने कहा, ‘मैं चक्र का पुत्र उषस्ति ऋषि हूं।’
राजा ने उषस्ति का नाम सुनकर क्षमा मांगते हुए कहा, ‘सच मानिए ऋषिवर! मैंने इस समस्त ऋत्विक-संबंधी कार्यों के लिए आपकी कई स्थानों पर खोज करवाई थी, किंतु आपका कहीं पता नहीं लगा। तब निराश होकर मैंने दूसरे ऋत्विक को चुन लिया, परंतु अब जब आप आ ही गए हैं तो कृपा करके सभी ऋत्विक-संबंधी कार्य अब आप ही पूरे कीजिए।’
‘बहुत अच्छा।’ कहकर उषस्ति ऋषि ने राजा के सामने एक प्रस्ताव रखा। वे बोले, ‘मैं चाहूंगा कि मेरे आदेश के अनुसार ये ऋत्विक ही स्तुति आरंभ करें, परंतु एक बात है, जितना धन आप इन लोगों को दें, उतना ही मुझे भी दें।’
‘ऐसा ही होगा ‘राजा ने स्वीकृति दी।
उषस्ति ऋषि यज्ञ संपूर्ण करने को तैयार हुए तो उनके पास बैठे प्रस्तोता, उद्गाता और प्रतिहर्ता ने क्रमशः उनसे पूछा, ‘आपने कहा था कि जिस देवता की तुम स्तुति करने जा रहे हो, उसे बिना जाने यदि तुम स्तुति पाठ करोगे तो तुम्हारे प्राण भी जा सकते हैं। अतः अब आप उस देवता के बारे में हमें समझाएं।’
उषस्ति ऋषि बोले, वह देवता है प्राण नामधारी परमात्मा। जिसकी वेद-मंत्रों द्वारा स्तुति की जाती है।’
एक अन्य याज्ञिक की शंका के उत्तर में उषस्ति ने उसे बताया कि जिस उद्गीथ आदित्य नाम वाला परमात्मा ही है और उद्गीय (ओम) के स्तोत्रों का गायन किया जाता है,  और उद्गीथ तो ईश्वर के मुख्य नाम ओउम् का प्रतीक है।
इस प्रकार सभी प्रश्नकता्रओं का समाधान कर उषस्ति ने यजमान राजा द्वारा सम्मान एवं सत्कार प्राप्त किया। वस्तुतः परमात्मा को जाने बिना यज्ञ आदि क्रियाओं को करना उचित नहीं होता, यही इस कथा का सार है। (हिफी)

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