अध्यात्म

सेवक बनकर सुग्रीव को बनवाया राजा

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

सामान्य रूप से देखा गया है कि स्वामी अपने सेवक का भरण-पोषण करता है, उसकी हर सुविधा का ध्यान रखता है और स्वामी की सुविधा से ही सेवक जीवन यापन करता है। इसके विपरीत हनुमान जी हैं, जो सुग्रीव के सेवक हैं लेकिन स्वामी को राजा बनवाने का निरंतर प्रयास करते रहे। प्रभु श्रीराम से मित्रता करवाकर सुग्रीव को राजा बनवा दिया। दूसरे शब्दों मंे कहें तो स्वामी पर उपकार किया।
भरत पुत्र पुष्कल की युद्ध में मृत्यु होने के बाद हनुमानजी संजीवनी बूटी लेने के लिए द्रोणाचल पर्वत पर गए। वहाँ एक लक्ष यक्ष राक्षसों का पहरा था। देवताओं की सेना भी वहाँ रहती थी। वह द्रोणाचल की रक्षा करती थी। जैसे ही हनुमानजी वहाँ पहुँचे, सब इकट्ठे हो गए। उन्होंने पूछा-‘‘कौन हो तुम, यहाँ क्यों आये हो?’’ हनुमानजी ने कहा-‘‘मैं रामदूत हूँ। पहले भी तीन बार आ चुका हूँ, तुमने कभी रुकावट नहीं डाली।’’ देवताओं के सेनापति ने कहा-‘‘हम यहाँ के रक्षक हैं। पहले तो देवताओं का कार्य था और राक्षसों का संहार था। इसलिए वानरी सेना को जीवित रखने के लिए हमने नहीं रोका, किन्तु मृत्युलोक के कार्य के लिए आप संजीवनी नहीं ले जा सकते।’’ हनुमानजी ने कहा-‘‘यह भी रामजी का ही कार्य है। पहले भी आपने उन्हीं के लिए बूटी दी थी, अब भी उन्हीं का कार्य है। उनके पुत्र (अर्थात् भरत-पुत्र) की मृत्यु हो गई है। इसलिए जाने दें।’’ देव सेनापति ने कहा कि ‘बूटी केवल देवताओं के लिए है, मृत्युलोक के लिए नहीं, चाहे रामजी हों या कोई और हम नहीं जाने देंगे।’ हनुमानजी कहने लगे कि राजी से दो तो ठीक, नहीं तो वैसे भी ले जानी है। रामजी की सेवा करने के लिए ही आपका भी जन्म है और मेरा भी, रामजी ही तुम्हारे और हमारे रक्षक हैं उन्हीं की सेवा के लिए मैं यहाँ आया हूँ। (याद होगा कि सुरसा के लिए भी यही कहा था और विनय करी थी) देव सैनिकों ने हनुमानजी पर हथियारों की बौछार कर दी। यहाँ तुलसीदास जी की चौपाई याद आती है-‘‘सठ सन विनय, कुटिल सन प्रीति।’’ हनुमानजी ने कहा-‘‘रामजी ने आप सबके लिए रूप धारण किया। तुम्हारे लिए ही मृत्युलोक में जन्म लिया, हमने भी उन्हीं की आज्ञा से देवताओं के सब कार्य किए, आज हम पर ही शस्त्रों की बौछार करते हो।’’ ऐसा कहकर हनुमानजी ने भयंकर रूप धारण किया और क्षणभर में सब सैनिकों को मार डाला। देवताओं ने देवलोक में समाचार दिया कि एक वानर मृत्युलोक के लिए द्रोणाचल से संजीवनी बूटी लेने आया है। इन्द्र देवता भी सेना लेकर आ गए। हनुमान जी ने घोर गर्जना की और कहा कि पर्वत तो ले ही जाऊँगा किन्तु यदि तुमने मेरे साथ युद्ध किया तो इस पर्वत को यहाँ रखूँगा ही नहीं। युद्ध छिड़ गया। हनुमानजी ने लाखों, सैनिकों को मार दिया। इन्द्र को मारने को तैयार हुए तब ब्रह्माजी आये और इन्द्र को फटकारा कि ‘जिन्दा रहना है या नहीं? इनकी विनय करो।’ उस समय सबने मिलकर हनुमानजी की स्तुति की और हनुमानजी द्रोणागिरि ले आए। इसलिए यहाँ भी यह चौपाई याद आती है कि-
‘‘राम काज करिबे को आतुर’’
रामजी की सेवा में जो विघ्नकारी हो उसके लिए हनुमानजी परमशत्रु का कार्य करते हैं और रामजी की सेवा के लिए संलग्न रहते हैं। जो इनकी विनय करता है उसके यह संगी हो जाते हैं।
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा।
राम मिलाय राज पद दीन्हा।।
अर्थ-यहाँ तुलसीदास जी ने श्री हनुमानजी के गुणगान में असमर्थता दिखाते हुए उपरोक्त उच्चकोटि के महानुभावों का उल्लेख करते हुए अपनी तुच्छता का वर्णन किया है, क्योंकि उन सबकी सहायता में हनुमानजी का हाथ है। हनुमानजी की विनय करते हुए तुलसीदास जी कहते हैं कि आपने सुग्रीव का बिना स्वार्थ के ही महान् उपकार किया। जहाँ ईश्वर-प्राप्ति करने में शिष्य गुरु के अधीन रहता है। वहाँ सुग्रीव के सेवक बनकर उनको ईश्वर का साक्षात्कार कराया और उनका गया हुआ राज्य वापिस कराया (अर्थात् किष्किन्धा का राज्य वापिस कराया)।
भावार्थ-जब इन्द्र ने अपनी शक्ति से बाली को उत्पन्न किया तब उसके गले में एक माला डाली थी और कहा था कि तुमको युद्ध में कभी थकावट नहीं होगी, सदा तुम्हारा तेज बढ़ता ही जायेगा। तब सूर्य चिन्तित हो गए, क्योंकि उनका पुत्र सुग्रीव था। वह सोचने लगे कि मैं अपने पुत्र की रक्षा करने के लिए इन्द्र से बढ़कर क्या लाऊँ अर्थात् मेरे पास ऐसी कोई वस्तु नहीं जो इन्द्र से बढ़कर सुग्रीव को अर्पण करूँ। हनुमानजी की योग्यता देखकर मन-ही-मन में सूर्य ने निश्चय किया कि ‘यदि यह वानर सुग्रीव का मंत्री बन जाय तो बाली से हजार गुनी शक्ति वाला हो जायेगा और मेरे पुत्र की रक्षा अच्छे तरीके से हो जायेगी।’ सूर्य ने गुरु-दक्षिणा में यही मांगा कि हे हनुमान! जब तक सुग्रीव का राम से मिलाप न हो तब तक उसकी रक्षा करते रहना। तब से हनुमान जी सुग्रीव के सचिव के रूप में ही उनके पास रहने लगे।
जब जानकी जी का हरण हुआ तो आकाश-मार्ग से रोती हुई स्त्री की आवाज सुन, सुग्रीव ने कहा-देखो कोई स्त्री रो रही है, कौन दुष्ट पकड़कर ले जा रहा है?’ हनुमानजी कूद गए और रावण के सामने से रास्ता रोक लिया। रावण पहले ही जटायु से मार खाया हुआ था। हनुमानजी ने कहा कि ‘चल सुग्रीव के पास, यह किसी की स्त्री है?’ भयभीत होकर रावण ने सोचा कि जटायु को तो मार दिया था, किन्तु इस वानर के सामने मेरी शक्ति नहीं चलेगी। रावण ने विनय करके कहा-‘‘मैं स्त्री के साथ हूँ, इसलिए स्त्री समझकर ही मुझे छोड़ दो।’’ तब जानकी जी ने कहा-‘‘अरे दुष्ट! तेरे वंश का इन्हीं के द्वारा नाश होगा।’’ फिर जानकी जी ने हनुमान जी से कहा-‘‘यह रामजी को निशानी दे देना, और कह देना कि रावण हरण करके ले गया है।’’ वह गहना सुग्रीव के पास गुफा में रखा गया और सब रामजी का इन्तजार करने लगे।
बाली के त्रास से सुग्रीव चौदह भुवनों में घूमता रहता था। हनुमानजी को पता लगा कि मतंग ऋषि के द्वारा बाली को श्राप मिला हुआ है, अतः उन्होंने सुग्रीव को सुरक्षित स्थान पर ऋष्यमूक पर्वत में रखा जो किष्किन्धा के बिल्कुल पास में है। बाली के भय से सुग्रीव को रात्रि में नींद नहीं आती थी। तब हनुमानजी ने कहा, ‘‘मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा। बाली स्वयं तो श्राप के कारण आ नहीं सकता, और जो भी वानर लोग बाली के भेजे हुए यहाँ आवेंगे उन सबका मैं सफाया कर दूँगा।’’ सुग्रीव ने यह बात मान ली और कहा वह निश्चिन्त होकर ऋष्यमूक पर्वत पर रहने लगा। बाली के भेजे हुए हजारों बन्दरों को हनुमानजी ने यमलोक पहुँचा दिया। रामजी के आने पर स्वयं हनुमान जी ने रामजी के साथ वार्तालाप कर रामजी को सुग्रीव का मित्र बना लिया।
बाली को घमण्ड था कि मैं सम्पूर्ण वानरों का अधिपति हूँ, रामजी मेरे पास आयेंगे और मेरी सलाह से ही रावण को मारने का विचार बनायेंगे, किन्तु हनुमानजी ने अपनी बुद्धि द्वारा उसका सारा घमण्ड समाप्त कर दिया और किष्किन्धा का शासन सुग्रीव को दिलाया। रामजी से मिलाप के बाद रामजी के अयोध्या वापिस आने तक हनुमानजी ने ही, सुग्रीव की तीनों लोकों में प्रशंसा करायी। बिना स्वार्थ के ऐसा कौन है जो सुग्रीव का दास कहलाकर उसको राज्य वापस दिलाये? (हिफी)-क्रमशः
(साभार-स्वामी जी श्री प्रेम भिक्षु महाराज)

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