अध्यात्म

रावण का पुत्र महिरावण का वध

 

यह कहानी उन दिनों की है, जब लंका में श्रीराम और रावण की सेनाओं मंे विकट युद्ध छिड़ा हुआ था। एक-एक करके रावण के अनेक योद्धा मारे जा चुके थे। राम द्वारा कुंभकर्ण और मेघनाद जैसे शूरवीर योद्धाओं का प्रणांत हो चुका था। रावण बहुत हताशा का अनुभव कर रहा था। तभी उसे विचार हो आया कि अभी उसका एक पुत्र  और भी मौजूद है। रावण के उस पुत्र का नाम था-महिरावण। वह पाताल का राजा था। महिरावण बेहद कुशल मायावी था। रावण ने अपना ध्यान केंद्रित करके उसी का आवाह्न किया।
संध्या का समय था। पाताल लोक में महिरावण उस समय अपने भवन में विश्राम कर रहा था। अचानक अपनी अलौकिक शक्ति के द्वारा उसे ऐसा भान हुआ जैसे कोई उससे सहायता की याचना कर रहा हो। वह सोचन लगा, ‘यह कौन व्यक्ति है, जिसे मेरी सहायता की तुरंत आवश्यकता है। पता-लगाना चाहिए।’
वह भीतरी कक्ष में पहुंचा और एक ऐसे यंत्र के सामने जाकर खड़ा हो गया जिससे पाताल और बाह्य दुनिया के सारे हालातों की जानकारी प्राप्त की जा सकती थी। उसने यंत्र चालू किया। यंत्र पर सारे पाताल लोक का दृश्य अंकित हो गया। वह एक बार फिर से सोच में पड़ गया, ‘पाताल लोक में मेरी सहायता की किसी को आवश्यकता नहीं, तब यह आवाह्न निश्चय ही किसी और लोक से किया जा रहा है।’ उसने मन ही मन कहा। इसी प्रकार उसने स्वर्गलोक से संपर्क स्थापित किया, लेकिन वहां से भी कोई सूचना उसे नहीं मिली। फिर उसने पृथ्वी लोक मंे रह रहे अपने सगे-संबंधियों का स्मरण किया और यंत्र में जो दृश्य उजागर हुआ वह लंका के राजमहल का था।
‘अरे! ये तो मेरे पिताजी हैं, जो मेरा स्मरण कर रहे हैं।’ हठात उसके मुंह से ये शब्द निकल गए, ‘निश्चय ही इन पर कोई मुसीबत आ पड़ी है। मुझे तत्काल इनकी सहायता के लिए लंका पहुंचना चाहिए।’
महिरावण ने तुरंत एक जादुई मंत्र जपा। मंत्र के प्रभाव से तत्काल महल के कक्ष की छत में एक बड़ा-सा छेद हो गया और पृथ्वी पर जाने की राह खुल गई। अपनी माया के प्रभाव से वह उस छेद से बाहर आया और लंका की ओर उड़ चला। बात की बात में वह रावण के राजमहल में जा पहुंचा।
जब रावण के सम्मुख पहुंचकर उसने रावण को प्रणाम किया तो रावण के मुरझाए सुख पर हर्ष की लकीरें छा गईं। रावण बोला, ‘‘आ गए पु! मैं जानता था तुम मुझे निराश नहीं करोगे। तुम्हें देखकर अब मैं निश्चिंत हो गया हूं।’’
‘‘पर बात क्या हो गई पिताजी? आखिर आप इतने घबराए हुए क्यांे हैं?’’ महिरावण ने पूछा। सिंहासनों पर बैठ गए तो रावण ने कहना शुरू कियाए ‘‘इस बार ऐसे शत्रु से पाला पड़ा हैख् जिसने कुंभकर्ण, इंद्रजीत (मेघनाद का एक दूसरा नाम) और अनेक योद्धाओं को मार डाला है।’’
‘‘कुंभकर्ण और इंद्रजीत को भी। यह सब हुआ कैसे? इतना बलशाली शत्रु कौन पैदा हो गया, पिता जी?’’ महिरावण ने चिंता और उत्सुकता के मिले-जुले भाव में पूछा।
इस पर रावण ने शूर्पनखा की नाक काटे जाने से लेकर सीता का अपहरण करने, उसे अशोक वाटिका में रखने, हनुमान द्वारा लंका जलाए जाने और बाद में राम द्वारा अपनी सेना सहित लंका में पहुंचने और युद्ध में एक-एक करके अपने सेनापतियों, भाई कुंभकर्ण और पुत्र इंद्रजीत के मारे जाने की सारी बातें बता दीं। फिर वह बोला, ‘‘तो अब तुम समझ गए न पुत्र। इसलिए मुझे तुम्हारी सहायता चाहिए।’’
यह सुनकर अविश्वास से महिरावण का मुंह खुला का खुला रह गया। बोला, ‘‘यह तो बहुत असंभव बात है, पिताजी, अविश्सनीय भी। आप, जो इंद्र आदि देवताओं को परास्त कर चुके हैं, एक निष्कासित राजकुमार और वानर दल से कैसे पराजित हो गए?
‘‘वे दोनों भाई साधारण नहीं हैं, पुत्र! उनका पराक्रम देवताओं से भी बढ़-चढ़कर है।’’ रावण ने आह-सी भरते हुए कहा।
‘‘काश, आपने मुझे पहले बुला लिया होता।’’ सुनकर महिरावण ने कहा, ‘‘मैं पहले पहुंच गया होता तो हमारे सभी मित्र और सगे-संबंधी बच जाते।’’
‘‘अब तो तुम आ ही गए हो पुत्र। अब उन्हें मारने की कोई योजना बनाओ।’’ रावण ने कहा। फिर वे दोनों योजना बनाने में व्यस्त हो गए।
उधर, राम के शिविर में विभीषण को यह चिंता सता रही थी कि पता नहीं रावण आगे क्या करने वाला है। उसने श्रीराम से कहा, ‘‘प्रभु! एक के बाद एक असफलताओं से रावण बौखला गया है। अब न जाने वह कौन-सी चाल चलने वाला है। आप कहें तो मैं उसकी चाल का पता लगाऊं।’’
‘‘अवश्य, विभीषण। तुम जैसा उचित समझो करो।’’ राम ने सहर्ष अनुमति दे दी। विभीषण ने एक चिड़िया का रूप धारण किया और सीधे रावण के राजमहल में जा पहुंचा। वहां जाकर उन्होंने देखा कि रावण और महिरावण किसी योजना की रूप रेखा बनाने में व्यस्त थे। यह देखकर वह तुरंत वापस लौट पड़े। उन्होंने विचार किया कि श्रीराम को तुरंत इस बात की सूचना देनी चाहिए। राम के पास जाकर विभीषण ने महिरावण के लंका आगमन की बात बताई और कहा, ‘‘हे प्रभु! महिरावण बहुत शूरवीर और चतुर है। उसके पास अनेक मायावी शक्तियां हैं वह हद दर्जे का कपटी और कुचाली है। उसकी राजनीति का पता लगाना बहुत मुश्किल है, इसलिए अब हमें बेहद सावधान रहने की आवश्यकता है, क्या पता रात के कौन-से पक्ष में वह अपनी माया से क्या कर डाले।’’
‘‘आप ंिचंता न करें विभीषण जी!’’ हनुमान बोले, ‘‘आज सारी रात हम जागते रहेंगे और महिरावण की हर चाल को विफल कर देंगे।’’
‘‘परंतु हमें राम और लक्ष्मण की सुरक्षा के लिए कोई उपाय जरूर सोचना चाहिए।’’ विभीषण ने पुनः कहा।
हनुमान गहरे सोच में पड़ गए। फिर बोले, ‘‘हां, अब समझा। मैं श्रीराम और लक्ष्मण के चारों ओर ऐसा अभेद्य दुर्ग बनाऊंगा कि कोई अंदर प्रवेश करने ही न पाए।’’
‘‘दुर्ग! अतने कम समय में?’’ विभीषण ने चैंककर पूछा।
‘‘हां, बस देखते जाइए।’’ हनुमान बोले। फिर उन्होंने श्रीराम ने कहा, ‘‘हे प्रभु! इससे पहले कि मैं अपना काम करूं, आपसे एक विनती करना चाहता हूं। मेरा निवेदन है कि शक्तिमान सुदर्शन चक्र को दुर्ग के शिखर के पहरे पर लगा दीजिए।’’
‘‘जैसी तुम्हारी इच्छा, हनुमान।’’ राम ने मुस्कराकर कहा। और तब हनुमान ने अपनी पूछ बढ़ानी शुरू कर दी। पूंछ खड़ी होकर, ऊपर, बहुत ऊपर जाने लगी। शीघ्र ही पूंछ सौ योजन लंबी होकर आकाश में बहुत ऊंचाई तक जा पहुंची। तब हनुमान ने वानरराज सुग्रीव से कहा, ‘‘हे राजन! अब आप श्रीराम को अपनी गोद में लेकर बैठ जाइए और इसी तरह अंगद, लक्ष्मणजी की रक्षा करें।’’ हनुमान के कहने के अनुसार सुग्रीव राम को और अंगद लक्ष्मणजी को अपनी गोद में बिठाकर बैठ गए।
अब हनुमान जामवंत से उन्मुख हुए और बोले, ‘‘अब हमारी सारी सेना तुम्हें घेरकर बैठ जाए।’’ जामवंत ने ऐसा ही किया।
अब हनुमान ने दुर्ग बनाना आरंभ किया। शीघ्र ही उन्होंने अपनी पूंछ से एक गोलाकार दुर्ग तैयार कर दिया। वान सेना दुर्ग की गोल दीवार के साथ सटकर बैठ गई। बीचो-बीच राम, लक्ष्मण, अंगद और सुग्रीव बैठे। अब हनुमान ने अपनी पंूछ से उस दुर्ग को एक पिरामिड जैसा रूप दे दिया। सुदर्शन चक्र आकर शिखर के पहरे पर डट गया। मुख्य द्वार पर हनुमान स्वयं पहरे पर सन्नद्ध हो गए। हनुमान विभीषण से बोले, ‘‘महाराज विभीषण! आप दुर्ग के चारों ओर निगरानी रखें, मैं द्वार पर पहरा दूंगा। अब देखें, महिरावण विभीषण! आप दुर्ग के चारों ओर निगरानी रखें, मैं द्वार पर पहरा दूंगा। अब देखें, महिरावण हमारा क्या बिगाड़ लेगा।’’
‘‘कहते तो ठीक हो, हनुमान। पर हमें बहुत चैकस रहना पड़ेगा। वह मायावी कोई भी रूप धारण कर सकता है। तुम किसी को भी अंदर मत जाने देना। अपने पिता पवन को भी नहीं।’’
‘‘आप चिंता न करें महाराज विभीषण।’’ हनुमान ने कहा, ‘‘मैं किसी को भी अंदर न फटकने दूंगा।’’
रात्रि गहराने लगी। वे दोनों मुस्तैदी से पहरा देने लगे।
उधर, रावण और महिरावण एक योजना को कार्य-रूप दे चुके थे। मंत्रणा के पश्चात महिरावण ने अपने पिता से कहा, ‘‘अब आप सब-कुछ मुझ पर छोड़ दीजिए पिताजी। में राम और लक्ष्मण को पाताल लोक ले जाकर मां निकुंमल की बलि चढ़ा दूंगा।’’
रावण ने राहत की एक गहरी सांस भरी। बोला, ‘‘अब तुम जाओ, पुत्र! तुमने मुझे एक बहुत बड़ी चिंता से मुक्त कर दिया।’’
महिरावण ने महल से कूच किया। उसके साथ न तो सैनिक थे और न हाथी-घोड़े और हथियार। अपनी मायावी शक्ति से वह पलक झपकते ही राम के शिविर में जा पहुंचा लेकिन जैसे ही उसकी निगाह सुदर्शन चक्र पर पड़ी, वह सन्न-सा रह गया, ‘अरे, यहां तो शिविर पर सुदर्शन चक्र पहरा दे रहा है।’ हठात ही उसके मुंह से निकल गया।
अदृश्य रूप में रहकर उसने एक बार सारे शिविर का चक्कर लगाया। अंदर जाना नामुमकिन था। द्वार पर हनुमान मुस्तैदी से पहरा दे रहे थे।
उधर, विभीषण हनुमान से कह रहे थे, ‘‘हनुमान! मंै एक बार फिर से दुर्ग के चारों ओर गश्त लगाने जा रहा हूं। याद रहे वायुदेव तक का प्रवेश दुर्ग में न होने पाए।’’
जैसे ही विभीषण कुछ दूर चले गए, मायावी महिरावण तुरंत राम के पिता दशरथ का वेश बना दुर्ग के द्वार पर जा पहुंचा और हनुमान से बोला, ‘‘हे महाबली हनुमान! मैं राम का पिता दशरथ हूं। मैं अपने पुत्रों से मिलने अंदर जाना चाहता हूं।’’
राम के पिता का परिचय पाकर हनुमान पल भर के लिए सोच में पड़ गए। फिर वे सम्मानपूर्वक बोले, ‘‘महाराज दशरथ! बस थोड़ी देर रुकें। विभीषण अभी आने वाले हैं, वे आपको अंदर ले जाएंगे।’’ ऐसा कहकर उन्होंने अंधेरे की ओर दृष्टि दौड़ाई। कुछ ही देर बाद जब विभीषण लौटे तो हनुमान बोले, ‘‘महाराज विभीषण! श्रीराम के पिता महाराज दशरथ आए हुए हैं, वे तत्काल अपने पुत्रों से मिलने को उत्सुक हैं।’’
अब चैंकाने की बारी विभीषण की थी। इधर-उधर देखते हुए उन्होंने पूछा, ‘‘हे पवनसुत! कैसी बातें कर रहे हो? मुझे तो यहां कोई दिखाई नहीं दे रहा।’’ फिर कुछ सोचकर बोले, ‘‘सावधान विभीषण, वह मायावी महिरावण होगा, जो राजा दशरथ का वेश बनाकर आया था। इसका मतलब है कि खेल शुरू हो चुका है।’’ यह कहकर विभीषण फिर से पहरा देने चले गए।
विभीषण के जाते ही महिरावण ने इस बार भरत का रूप धारण किया और हनुमान ने राम और लक्ष्मण से मिलने का आग्रह किया, लेकिन हनुमान सतर्क थे, उन्होंने उससे विभीषण के आने की प्रतीक्षा करने के लिए कहा। थोड़ी ही देर बाद दुर्ग का चक्कर लगाकर विभीषण फिर से लौटे तो हनुमान ने कहा, ‘‘महाराज विभीषण! अयोध्या से श्रीराम के भाई भरत अपने बड़े भाई से मिलने आए हुए हैं। आपका क्या आदेश है?’’
विभीषण ने अंधेरे में निगाह दौड़ाई! बोले ‘‘आज तम्हें क्या होता जा रहा है हनुमान। कहां है भरत? मुझे तो वे कहीं भी दिखाई नहीं दे रहे।’’
फिर कुछ सोचकर बोले, ‘‘ये यकीनन महिरावण की चाल थी, हनुमान। वही इस बार भरत का वेश बनाकर आया होगा। मैं अंदर जा रहा हूं राम और लक्ष्मण को सुरक्षा कवच पहनाने, ताकि वह मायावी किसी भी रूप में जाकर उनके साथ कोई छल न कर सके। तुम मुस्तैदी से पहरा देते रहना।’’ कहकर वह अंदर प्रवेश कर गए।
कुछ ही क्षण बीते थे कि अंधकार से निकलकर पहरा देते हुए विभीषण वहां पहुंचे। आते ही उन्होंने हनुमान से पूछा, ‘‘हनुमान! सब ठीक तो है न। इस बार तो वह मायावी किसी और का रूप धारण कर यहां नहीं आया?’’
‘‘नहीं, कोई नहीं आया। पर एक बात तो बताइए महाराज विभीषण। अभी-अभी तो आप प्रभु राम और लक्ष्मण को सुरक्षा कवच बांधने की कहकर अंदर गए थे। एकाएक इतनी जल्दी कैसे लौट आए, वह भी अंदर से आने के बजाय, बाहर से।’’
‘‘क्या कह रहे हो, हनुमान! मैं तो अंदर कभी नहीं गया। ओह! समझा। हमारे साथ धोखा हो गया हनुमान। वह मायावी मेरा वेश बनाकर अंदर जाने में कामयाब हो गया। चलो अंदर चलते हैं।’’
दोनों भयभीत हो अंदर भागे। अंदर पहुंचे तो सचमुच विभीषण की आशंका सही सिद्ध हो चुकी थी। सारी वानर सेना सोई पड़ी थी। जहां राम और लक्ष्मण विश्राम कर रहे थे, उस स्थान पर एक बड़ा सा गड्ढा खुदा हुआ था। सुरंग बनाकर कपटी महिरावण सोए हुए राम, लक्ष्मण को लेकर पाताल लोक भाग चुका था।
विभीषण और हनुमान को जैसे काठ मार गया। पांव मन-मन भर के हो गए दोनों के। हिम्मत कर हनुमान ने सोए हुए वानरराज सुग्रीव और अंगद को जगाया। फिर सभी सेना जाग गई। हनुमान ने अपराध-बोध ग्रस्त हो सुग्रीव से कहा, ‘‘ महाराज सुग्रीव! राम और लक्ष्मण को महिरावण उठा ले गया। सारा दोष मेरा है। मैं जीने योग्य नहीं हूं। आप मुझे कोई कठोर सजा दीजिए।’’
तत्काल सुग्रीव बोले, ‘‘नहीं, नहीं हनुमान। तुम्हारा राजा होने के नाते दोषी तो मैं हूं।’’
‘‘और मैं भी तो दोषी हूं।’’ अंगद बोला, ‘‘मैं अपना कर्तव्य न निभा सका।’’
कुछ देर चुप्पी छाई रही। सारे लोगों के चेहरों पर विषाद की रेखाएं खिंची हुई थीं। फिर कुछ देर बाद सुग्रीव बोल, ‘‘हनुमान! तुम विशाल सागर लांघकर सीता तक पहुंचे थे। जब यह काम भी तुम ही कर सकते हो। हम सब तुम पर निर्भर हैं।’’
‘‘मेरा सरि लज्जा से झुका जा रहा है, राजन।’’ हनुमान गरदन नीची किए बोले, ‘‘मेरे होतु हुए हमारे प्रिय बंधुओं का देखते ही देखते हरण हो गया। लेकिन आप चिंता मत कीजिए। प्रायश्चित करने के लिए मैं तीनों लोकों को छान डालूंगा। उन्हें ढूंढकर ही चैन लूंगा, क्योंकि मैं उनके बिना जीवित नहीं रह सकता।’’
हनुमान ने जल्दी-जल्दी अपनी पूंछ समेटी और महिरावण द्वारा बनाई सुरंग में प्रवेश कर गए। उस लंबी सुरंग में वे आगे ही आगे बढ़ते गये और अंत में उसके छोर पर जा पहुचे। अब पाताल लोक उनके सामने था। पाताल लोग में उन्होंने एक के बाद दूसरा नगर छान डाला। अंत में उनकी दृष्टि एक बहुत ही भव्य भवन पर पड़ी।
‘हां, यही महिरावण का राजमहल लगता है, ‘उसने सोचा, ‘राम और लक्ष्मण को वह कपटी मायावी जरूर यहीं लाया होगा।’ तभी उनके नजर एक सुंदर झील पर पड़ी। बहुत छोटा-सा रूप धारण कर वे एक ऊंचे वृक्ष पर जा बैठे। उन्हें यकीन था कि उन्हें कोई देख नहीं पाएगा, लेकिन वहां पानी भरने आई कुछ स्त्रियों की निगाहों में वे आ ही गए।?
‘‘अरे देखो, कितना छोटा-सा वानर है।’’ उनमंे से एक बोली।
‘‘पर यह आया कहा से? इसका यहां पहुंचना हमारे राजा के लिए अपकुशन है।’’ दूसरी ने भी अपनी आशंका जताई।
‘‘अपकशुन कैसा? हमारे राजा तो बहुत शूरवीर और महान मायावी हैं, उन्हें एक वानर से डर कैसा?’’ तीसरी स्त्री बोली।
‘‘हां, सो तो है। परंतु वे अमर तो नहीं हैं। एक भविष्यवाणी के अनुसार उनका अंत मनुष्यों और वानरों के यहां आने पर होगा।’ एक बूढ़ी स्त्री ने अपनी राय जताई और आगे बोली, ‘‘और मैंने सुना है कि राजाजी यहां दो मनुष्यों को बंदी बनाकर लाए हैं।’’
‘दो मनुष्य! तब से तो राम और लक्ष्मण यही हैं।’ उन स्त्रियों की बात सुनकर हनुमान ने सोचा।
‘अब देर करना उचित नहीं होगा।’ ऐसा विचारकर वे वृक्ष से नीचे कूद गए, लेकिन नीचे शोरगुल की आवाजें सुनकर ठिठक गए और पेड़ के पीछे छुपकर कान लगाकर सुनने लगे। शीघ्र ही उन्हें पता लग गया कि दोनों बंदियों यानी राम और लक्ष्मण का कारागृह से निकालकर देवी निकुंमला के मंदिर में पहुंचाया जाने वाला है, जहां उनको देवी की भेंट चढ़ाया जाएगा। ये पुजारी लोगों और सैनिकों की भाग-दौड़ इसी उद्देश्य से हो रही है।
हनुमान के लिए अब खड़ा रहना असह्य हो उठा। उन्होंने तुरंत एक मक्खी का रूप धारण किया और कारागार में प्रवेश कर गए। राम और लक्ष्मण से कहा, ‘‘उठिए प्रभु! मैं आपको मुक्त कराने के लिए आया हूं।’’
राम और लक्ष्मण चैंकर उठ बैठे। उन्होंने इधर-उधर दृष्टि घुमाई। फिर राम बोले, ‘‘अरे, ये हम कहां हैं? ये जगह कौन-सी है?’’
‘‘आप पाताल लोक में हैं, प्रभु ! रावण का पुत्र मायावी महिरावण अपनी माया से आपको शिविर के सोते समय बंदी बनाकर उठा लाया है।’’ हनुमान ने कहा।
‘‘हां सचमुच ही। हम दोनों के तो हाथ भी पीछे हथकड़ियों में जकड़ दिए गए हैं।’’ राम बोले, ‘‘हम इन राक्षसों से अब कैसे निपट सकते हैं, हनुमान! हमारे पास तो शस्त्र भी नहीं हैं।’’
‘‘राक्षसों से मैं लोहा लूंगा, प्रभु!’’ हनुमान हाथ जोड़कर बोले, ‘‘आप तो बस अपने इस तुच्छ सेवक को ये आज्ञा दें कि इस मायावी को सदा के लिए मिटा दूं।’’
और फिर हनुमान ने उन्हें महिरावण की बलि की योजना बताई। बोले, ‘‘प्रभु राम, यहां आते हुए मैंने देवी निकुंलता के दर्शन किए थे। मैं जाकर उनसे सहायता की याचना करता हूूूं। अब केवल आपका आशीर्वाद चाहिए।’’
यह सुनकर श्रीराम बोले, ‘‘हनुमान! तुम मेरे सच्चे मित्र हो, जाओ, ईश्वर तुम्हें सफल करे।’’
एक बार फिर हनुमान मक्खी बनकर उड़कर देवी निकुंमला के मंदिर में पहुंचे और हाथ जोड़कर विनती की। ‘‘हे देवी निकुंमला! मैं आपको नमन करता हूं। हे माता, मैं राम और लक्ष्मण का सेवक हनुमान हूं। नीच महिरावण राम और लक्ष्मण की आपके सम्मुख बलि देने वाला है। हे माता, क्या आपने उसे ऐसा करने की आज्ञा प्रदान कर दी है।’’
तभी देवी की प्रतिमा के मुंह से शब्द निकले, ‘‘नहीं, नहीं हनुमान, मैंने उसे किसी बलि का आदेश नहीं दिया।’’
‘‘किंतु माता, महिरावण आपका भक्त है। क्या आप उसकी सहायता करेंगी? यदि करेंगी तो…।’’
‘‘उतावले न बनो, हनुमान।’’ देवी की आवाज फिर गूंजी, ‘‘पहले मेरी बात सुनो। महिरावण अपने शत्रुओं का विनाश करना चाहता है। इसलिए वह उनकी बलि चढ़ा रहा है, न कि मुझे प्रसन्न करने के लिए।’’
‘इसका अर्थ तो ये हुआ कि आप उसकी सहायता नहीं करेंगी?’’
‘‘नहीं, कदापि हनीं। अब महिरावण सज्जन और निर्दोष लोगों को सताने लगा है। अब उसका अंत निकट है।’’ देवी ने कहा।
‘‘अच्छा। तब मुझे बताइए कि उसका वध किस तरह हो?’’ हनुमान ने पूछा।
‘‘ध्यान से सुनो हनुमान।’’ देवी बोली, ‘‘राम और लक्ष्मण शीघ्र ही यहां लाए जाएंगे। तुम अदृश्य होकर उनके साथ आना, और फिर…।’’ देवी ने हनुमान का मार्गदर्शन किया।
हनुमान ने दवी निकुंमला का आभार व्यक्त किया और पुनः मक्खी बनकर कारागर में पहुंचे। उन्होंने श्रीराम से कहा, ‘‘हे प्रभु! देवी बहुत कृपालु हैं। उन्होंने बड़ी अनूठी योजना मुझे सुझाई है।’’
‘‘अच्छाफ! अब झटपट वह योजना मुझे समझा दो, क्योंकि समय बहुत कम है।’’ राम ने कहा। इस पर हनुमान ने राम को सारी योजना समझा दी। कुछ ही देर बाद बंदी-गृह के बाहर महिरावण की आवाज सुनाई दी। वह अपने सैनिकों को कैदियों को बाहर लाने का आदेश दे रहा था। यह सुनकर हनुमान तुरंत अदृश्य हो गए और जब महिरावण के सैनिक बंदी की हालत में राम और लक्ष्मण को देवी के मंदिर ले जा रहे थे तो हनुमान भी अदृश्य अवस्था में उनके साथ-साथ चल पड़े।
राम और लक्ष्मण को बंदी हालत में देवी के सम्मुख लाया गया। उनकी विवशता देखकर महिरावण ने एक जोर का अट्टहास लगाया और बोला, ‘‘हा, हा, हा। पराक्रमी राम! मेरे पिता से टक्क्र लेने का दुस्साहस किया था न तुमने। आज तुम्हारा जीवन मेरे हाथों मंे है। अब शीघ्र ही तुम्हारी मृत्यु होगी और पिता जी का सीता से विवाह होगा।’’
देवी पूजा प्रारंभ हुई। पूजा की थाली हाथ में लेकर महिरावण ने कहा, ‘‘हे सर्वशक्तिमान माता निकंुमला। मैं तुम्हें शीश नवाता हंू।’’ तत्पश्चात उसने एक सैनिक से तलवार ली और उसे शुद्ध करके देवी को समर्पित की। फिर उसने राम और लक्ष्मण से कहा, ‘‘तुच्छ मानवो! तुम्हारा धन्य भाग कि तुम देवी को समर्पित हो रहे हो, आओ, उन्हें प्रणाम करो।’’
किंतु दोनों भाई अपने स्थान से हिले तक नहीं। यह देख महिरावण क्रोध से बिफर उठा, ‘‘क्यों, सुना नहीं तुमने कि मैंने कया कहा है? आओ, देवी की प्रतिमा के आगे सिर झुकाकर खड़े हो जाओ।’’
‘‘हम अयोध्या के राजकुमार हैं।’’ राम बोले, ‘‘अरे कपटी महिरावण, सब हमारे सामने शीश झुकाते हैं। हम कभी किसी के आगे नतमस्तक नहीं हुए।’’
‘‘हम जानते ही नहीं कि शीश कैसे झुकाया जाता है। पहले तुम करके दिखाओ फिर हम करेंगे।’’ लक्ष्मण ने कहा।
‘‘ठीक है, घमंडी मानवो! पहले मैं ही करके दिखाता हूं।’’ कहते हुए महिरावण ने देवी के आगे शीश झुका दिया।
हनुमान तो जैसे इसी अवसर की तलाश में थे। वे तुरंत असली रूप में आ गए। फुरती से उन्होंने देवी की प्रतिमा के आगे रखी तलवार उठाई और महिरावण की गरदन पर तलवार का प्रहार कर दिया। वार इतना करारा था कि तुरंत ही महिरावण का सिर कटकर नीचे जा गिरा। उसे चीखने तक का मौका न मिला। हनुमान ने उसी तलवार से राम और लक्ष्मण की जंजीरें भी काट डालीं। फिर वे राक्षसों की खबर लेने आगे को लपके। उनका रौद्र रूप देखकर राक्षस सैनिकों में भगदड़ मच गई। जिसके जिधर सींग समाए, उसी ओर भाग छूटा।
हनुमान ने राम और लक्ष्मण को अपने कंधों पर बैठाया और जिस सुरंग से होकर वे पाताल लोक में आए थे, उसी से वापस उड़ चले।
उधर सुग्रीव के शिविर में सभी चिंतातुर थे। सुग्रीव कह रहा था, ‘‘मध्याह्न होने को आया और वे लोग अभी तक नहीं लौटे। पता नहीं क्या बीती उन पर?’’
‘‘आप शोक न करें वानरराज। मुझे पूरा विश्वास है कि हनुमान कभी असफल नहीं होंगे। हमंे धैर्यपूर्वक उनकी प्रतीक्षा करनी चाहिए।’’ वृद्ध जामवंत ने सुग्रीव को ढाढ़स दिया।
कुछ ही पल बीते थे कि सुरंग से निकलते राम, लक्ष्मण और हनुमान उन्हें दिखाई दिए। उन्हें देखकर वानर सेना ने हर्षनाद किया और सब खुशी से नाचने लगे।
राम ने सुग्रीव से कहा, ‘‘मित्रों! महिरावण मारा गया। अब रावण के पास एक भी योद्धा नहीं बचा। कल उसे विवश होकर स्वयं युद्ध करने आना पड़ेगा और तब मैं उसका वध करूंगा।’’
वानर सेना ने एक बार फिर जोर से हर्षनाद किया और जोर-जोर से राम, लक्ष्मण और हनुमान की जय-जयकार करने लगे। (हिफी)

 

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