सम-सामयिक

अद्भुत साहसी हैं सद्गुरू जग्गी

 

सद्गुरु जग्गी वासुदेव- यह नाम है उनका और विचित्र साहस भी है उनमें। बचपन मंे वह जलती चिता से अधजले अंग उठा लेते थे। कब्रिस्तान मंे घंटों बैठे रहते थे और सबसे ज्यादा साहस सांपों को पकड़ने मंे दिखाते थे। जहरीले कोबरे को बेखौफ पकड़ लेते और गले मंे डाल लेते थे। एक बार कोबरे ने डस भी लिया लेकिन जग्गी ने घर में किसी को नहीं बताया। काली चाय पीकर खुद की जान बचाई। वह भारतीय योग गुरु और आध्यात्मिक योग गुरू हैं। वह 1982 से दक्षिण भारत मंे योग सिखा रहे हैं। उन्होंने 1992 मंे कोयंबटूर के पास ईशा फाउंडेशन की स्थापना की जो एक आश्रम और योग केन्द्र संचालित करता है। सद्गुरु जब 25 साल के थे तब उनके जीवन मंे एक असामान्य घटना हुई। मैसूर के चामुडी हिल पर एक पत्थर पर बैठकर उन्होंने समाधि लगायी। उनको लगा कि 25 मिनट ही समाधि मंे रहे लेकिन उनके इर्द-गिर्द खड़े लोगों ने बताया कि समाधि मंे पूरे 13 दिन बीत चुके हैं। इसके बाद सद्गुरु अध्यात्म का ज्ञान बांटने लगे। उन्होंने 1983 मंे पहली बार योग की कक्षा शुरू की थी।

सद्गुरु जग्गी वासुदेव की स्कूल के दिनों में एक अजीब आदत थी। वह आधी रात को मुस्लिम कब्रिस्तान पहुंच जाते और वहां घंटों-घंटों तक बैठे रहते और शव दफन होते देखते। अरुंधति सुब्रमण्यम, पेंगुइन से प्रकाशित सद्गुरु की जीवनी ‘युगन युगन योगी: सद्गुरु की महायात्रा’ में लिखती हैं कि जग्गी की इस अजीब आदत की जानकारी उसके परिवार और दोस्तों को भी नहीं थी। वह आधी रात को अक्सर अपने घर से चुपके से खिसक जाते और मैसूर के स्थानीय कब्रिस्तान में पहुंच जाते। कभी-कभी अपने पेट डॉग रूबी, को घुमाने के बहाने चुपके से श्मशान पहुंच जाते। स्कूल के दिनों से उनकी आत्माओं में खासी दिलचस्पी थी। उनके मन में मरने की प्रक्रिया को जानने की उत्सुकता थी। वह जली हुई लाशों, खोपड़ियों, शरीर से अलग हो चुके अंगों और अंतिम संस्कार के डरावने मलबे को घंटों देखते रहते।

सद्गुरु जग्गी वासुदेव को 5 साल की उम्र से सांपों से लगाव हो गया था। वह अपने घर में सांप पालने लगे थे। थोड़े बड़े हुए तो आस-पास के इलाके में सांप पकड़ने वाले के रूप में मशहूर हो गए और सांप पकड़कर अपनी पॉकेट मनी यानी जेब खर्च का इंतजाम करने लगे। अरुंधति लिखती हैं कि सद्गुरु ने अपने माता-पिता से एक भी रुपया जेबखर्च नहीं लिया। छठवीं-सातवीं कक्षा में पहुंचते-पहुंचते सांप पकड़ने का हुनर उनके लिए बड़ा फायदेमंद साबित हुआ। अपने लिए खुद पैसे कमाने लगे।

अरुंधति लिखती हैं सद्गुरु अंतिम संस्कार में शोक प्रकट करने आए लोगों के जाने का इंतजार करते और चुपचाप लाश को जलते देखते। जब सब चले जाते तो कभी-कभी दाह-संस्कार के बाद अलग हुए अंग को उठाकर करीब से देखते और फिर सुलगती चिता पर वापस फेंक देते। सद्गुरु जब नौंवीं कक्षा में थे, तब स्कूल की छुट्टियों के दौरान सुचरिता नाम की उनकी एक सहपाठी की निमोनिया से मौत हो गई। शुरुआत में तो सहपाठियों को इस बारे में पता नहीं था। सुचरिता दशहरे की छुट्टियों के बाद स्कूल नहीं लौटी। टीचर द्वारा उसका नाम पुकारे जाने पर, जग्गी और उसके दोस्त उसकी आवाज की नकल करके उसकी हाजिरी लगवा दिया करते थे। जब 20 दिनों बाद उनको पता चला कि सुचरिता का देहांत हो चुका है तो जग्गी बड़े हैरान हुए। वह जानने चाहते थे कि आखिर क्लास में इतने वर्ष उनके साथ बैठने वाली उस लड़की के साथ हुआ क्या? सुचरिता के भाई से उसे मालूम हुआ कि अपने अंतिम दिनों में बेहोशी के दौरान वह अक्सर ‘जग्गी’ नाम लिया करती थी। इससे वह और बेचैन हो गए। सुचरिता को वाकई क्या हुआ था? वह कहां गायब हो गई? अब कहां है? यह पता लगाने के लिए सद्गुरु ने अजीब तरकीब निकाली। अपने पिताजी के दवाखाने से गार्डिनल-सोडियम की 98 गोलियां चुरा लीं। एक रात खाना नहीं खाया, और वो सारी गोलियां एक साथ गटक गए। फिर इंतजार करने लगे कि देखें, आगे क्या होता है? आखिर मौत के बाद होता क्या है, इंसान जाता कहां है? 3 दिन बेहोश पड़े रहे और तीसरे दिन अपने पिता के अस्पताल में नींद खुली।

अरुंधति लिखती हैं कि इतनी सारी गोलियां खाने के बाद जग्गी की तबीयत बिगड़ गई। घरवाले उन्हें आनन-फानन में अस्पताल ले गए। वहां पेट की धुलाई हुई। होश में आने के बाद जब माता-पिता ने पूछा तो जग्गी ने बुदबुदाते हुए कहा कि उसने गलती से नागफनी का फल खा लिया था। किसी को कभी भी सच का पता नहीं चला। अरुंधति सुब्रमण्यम लिखती हैं कि जग्गी के लिए खीझने वाली बात यह थी कि उन्हें मौत के बारे में कुछ भी पता नहीं चल पाया।

उन दिनों सद्गुरु के घर के एक बड़ा सेंट्रल इंस्टीट्यूट था, जिसके अहाते में बहुत से सांप थे। वहां छोटा सांप पकड़ने के 25 रुपये और कोबरा जैसा बड़ा सांप पकड़ने पर 50 रुपये मिलते थे। तब पचास रुपये बहुत बड़ी रकम हुआ करती थी। बकौल सद्गुरु जिस दिन शनिवार को वह इंस्टीट्यूट पहुंच जाते तो दोपहर तक 3 या 4 सांप पकड़ लेते और डेढ़-दो सौ रुपये कमा लेते थे। एक दिन जग्गी को पास के एक ट्यूब लाइट कारखाने में घुसे हुए एक सांप को पकड़ने को बुलाया गया। जब जग्गी ने उस सांप को पकड़ा तो सबकी घिग्घी बंध गई। वो 12 फिट का कोबरा था।

सांप को पकड़ने की आदत सद्गुरु के लिए मुसीबत भी बनी और उनकी जान जाते-जाते बची। अरुंधति सुब्रमण्यम लिखती हैं कि एक बार जग्गी एक पहाड़ी पर चट्टान की दरार से एक कोबरा को खींच रहे थे। उन्हें नहीं पता था कि अंदर एक नहीं बल्कि दो सांप हैं। इससे पहले कि वह कुछ समझ पाते, दूसरे कोबरा ने उनपर हमला कर दिया। जहरीले दांत तीन बार पैर में गड़ाए।

आखिरी बार तो बहुत खतरनाक ढंग से वार किया। इस बार पैर की उंगलियों के बीच के मांस में दांत चुभाए थे। बकौल सद्गुरु जब सांप का जहर आपके शरीर में प्रवेश करता है, तो अलग तरह का दर्द होता। यह दर्द इंजेक्शन जैसा होता है। मैं जान गया था कि यह मेरे शरीर में पहुंच चुका है, लेकिन कितना, यह मुझे मालूम नहीं था। सद्गुरु कहते हैं कि कोबरा के काटने के बारे में मुझे यह जानकारी थी कि इससे खून जमने लगता है। हृदय को खून पंप करने में परेशानी होती है। मुझे बताया गया था कि काली चाय पीने से इस प्रक्रिया की गति धीमी हो जाती है। मैंने फौरन सांप को वहीं छोड़ दिया और अपनी साइकिल से घर की तरफ भागना शुरू किया। रास्ते में जो पहला घर दिखाई दिया, वहां एक महिला को अपनी हालत बताई और फौरन पांच-छह कप बिना दूध की चाय देने को कहा। मेरी बात सुनकर वो महिला भौचक्का रह गईं। केतली भर चाय पीकर मैं जैसे-तैसे अपने घर पहुंचा। जग्गी ने घर पहुंचने के बाद किसी को सांप काटने के बारे में नहीं बताया। वह कहते हैं- ‘पहले मैंने सोचा कि अपने पिता को इसकी जानकारी दे दूं। वे मुझे अस्पताल ले जा सकते थे या कुछ और कर सकते थे। फिर मैंने सोचा छोड़ो, जाने दो। मेरी पलकें कुछ भारी थीं और झुक रही थीं, लेकिन मैं ठीक-ठाक था। मैंने कुछ योगासन किए, जल्दी से खाना खाया और सो गया। करीब बारह घंटे बाद नींद खुली। काली चाय कारगर साबित हुई और मेरी जान बच गई। ऐसे अद्भुत साहसी हैं जग्गी वासुदेव। (हिफी)

(अशोक त्रिपाठी-हिफी फीचर)

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