चिंतन-मनन

धर्म और अधर्म से परे ज्ञान

आत्मज्ञान स्वयं का बोध है लेकिन स्वयं द्वारा स्वयं को जानना कठिन है। ज्ञान प्राप्ति में हमेशा ‘दो तत्व’ होते हैं। पहला जानने का इच्छुक व्यक्ति और दूसरा जानने योग्य विषय। आत्मज्ञान के काम में हम स्वयं ही जानने के इच्छुक व्यक्ति होते हैं और स्वयं को ही जानने योग्य विषय बनाते हैं। स्वयं को स्वयं द्वारा जानने की कार्यवाही ही अध्यात्म है। गीता में अध्यात्म की सुंदर परिभाषा है- “स्वभावों अध्यात्म उच्यते-स्वभाव को ही अध्यात्म कहा जाता है। अध्यात्म ईश्वर विज्ञान नहीं है। अपने स्वभाव का ज्ञान भौतिक बोध है लेकिन साधारण भौतिक ज्ञान नहीं है। स्वयं को जानने में स्वयं के संस्कार और सुस्थापित मानक भी बाधा हैं। कठोपनिषद् की कथा में यम और नचिकेता के प्रश्नोत्तर हैं। नचिकेता आत्मज्ञान का अभिलाषी था। वह जीवन के प्रवाह को जानना चाहता था। यम ने आत्मज्ञान की कठिनाई बताई “साधारण जानकार द्वारा बताए जाने और बहुत चिन्तन किए जाने पर भी यह ज्ञान समझ में नहीं आता – सुविज्ञेयः न। ज्ञानी पुरूष द्वारा न बताए जाने पर भी यह प्राप्त नहीं होता। यह अणु से भी सूक्ष्म है – अणु प्रमाणात अणीयान। तर्क से भी परे हैं।” (कठोपनिषद् 1.2.8) यहां विद्वान आचार्य की आवश्यकता बताई गई है। साधारण जानकार अपर्याप्त हैं, ज्ञानी पुरूष का प्रबोधन जरूरी है। मूलभूत प्रश्न है कि ज्ञानी आचार्य मिले कैसे? वे सामने हों भी तो पहचाने कैसे? क्या तटस्थ आत्मविश्लेषण द्वारा भी आत्मज्ञान अप्राप्य है?
जिज्ञासा भीतर होती है। विषय बाहर होते हैं। संसार के भौतिक प्रपंच चला करते हैं। कुछ लोगों को सांसारिक गतिविधि जानने की इच्छा नहीं होती लेकिन कुछ लोग उनसे जानना चाहते हैं। संसार के प्रति जिज्ञासु होते हैं। संसार का बड़ा भाग स्थूल है। हमारे इन्द्रियबोध की पकड़ में है। इससे भी बड़ा भाग सूक्ष्म और अतिसूक्ष्म है। यम ने उसे अणु से भी सूक्ष्म बताया है। कुछ जिज्ञासु उसे भी जानना चाहते हैं। इसके लिए अच्छा प्रश्नकर्ता होना बहुत जरूरी है। जिज्ञासु नचिकेता अच्छा प्रश्नकर्ता भी था। यम ने कहा, “नचिकेता तुमने जो पाया है वह तर्क से नहीं मिलता। यह प्राप्ति सुयोग्य विद्वान के आत्मज्ञान प्रबोधन से ही संभव है। तुम सत्यनिष्ठ और सत्यघृति हो। मुझे तुम्हारे जैसे प्रश्नकर्ता ही मिला करें।” यम की मानें तो तब अच्छे प्रश्नकर्ताओं का भी अभाव था। नचिकेता जैसे प्रश्नकर्ता कम थे। यम सुंदर प्रश्नकर्ता पाकर प्रसन्न है। अच्छे प्रश्नकर्ताओं से संवाद का आनंद ऋग्वेद की परंपरा है। ऋग्वेद के एक ऋषि ने स्तुति की है “ऐसे मित्रों को मुझसे दूर रखो, जो प्रश्न और संवाद का आनंद नहीं लेते।” यम ऋग्वेद की ही बात दूसरे अर्थ में दोहरा रहे हैं कि हमें अच्छे प्रश्नकर्ता ही मिला करें। महाभारत भी खूबसूरत प्रश्नों से भरापूरा है। यक्ष प्रश्न चर्चा में रहते हैं। गीता अर्जुन के प्रश्नों से ही दर्शन ग्रंथ बनी है लेकिन आधुनिक काल में भी अच्छे प्रश्नकर्ताओं का अभाव है।
ज्ञान तृप्ति है और परमज्ञान परम तृप्ति। भारतीय चिन्तन के अनुसार परमज्ञानी की कोई अभिलाषा नहीं होती है। अभिलाषा कर्मपे्ररित करती है। कर्म के परिणाम कभी सुखद आते हैं और कभी दुखद। सुखद परिणाम भी स्थायी नहीं होते। कर्मफल के रूप में प्राप्त सारी उपलब्धियां अनित्य हैं। आत्मज्ञान की उपलब्धि नित्य है। उत्तरवैदिक काल के दर्शन की यही मान्यता थी। यम ने नचिकेता से कहा “मैं जानता हूं कि कर्मफल से प्राप्त संपदा अनित्य होती है। अनित्य से नित्य की प्राप्ति नहीं होती। यद्यपि मैंने अनित्य पदार्थो से नचिकेता अग्नि का चयन किया। मैंने नित्य को प्राप्त किया है।” यहां यम के कथन में अन्तर्विरोध हैं। यम ने ‘अग्नि चयन’ में अनित्य द्रव्य का प्रयोग किया है – अनित्य द्रव्यै। उन्हें नित्य की प्राप्ति हुई। अग्नि उपासना का यज्ञ भले ही आदरणीय कर्तव्य हों लेकिन वे अनित्य पदार्थ हैं। गीता प्रेस के अनुवाद में अनित्य द्रव्य के पहले ‘निष्काम भाव’ जोड़ा गया है। मूल श्लोक में निष्काम भाव नहीं है। मूल मंत्र इस प्रकार है, “अनित्य द्रव्यै प्राप्वानस्मि नित्यम् – अनित्य द्रव्य से मैंने नित्य प्राप्त किया है।” इसका सामान्य अर्थ सुस्पष्ट है कि जीवन में अनित्य की भी भूमिका है। धन साधन क्षणभंगुर है लेकिन उनकी क्षणभंगुरता का ज्ञान भी धन साधन की उपासना से ही होता है।
कठोपनिषद् के प्रबोधन में सांसारिक सुखों की व्यापक चर्चा है। स्वर्ग के सुख भी बताए गए हैं लेकिन उन्हें आत्मज्ञान के सामने छोटा बताया गया है। इस उपनिषद् की रचना के समय सांसारिक सुखों को वरीयता देने का वातावरण रहा होगा। उन्हें तुच्छ बताने वाले लोग ज्ञानियों के बीच प्रतिष्ठित रहे होंगे। लेकिन ज्यादातर लोग भौतिक सुखों को वरीय मानने वाले ही थे। यम इसीलिए नचिकेता की प्रशंसा करते हैं, “सारी कामनाओं की पूर्ति संसार में संभव है। संसार में प्रतिष्ठा भी मिलती है। यह यज्ञ का फल भी है। यह निर्भयता की अवधि से परे है। स्तुत्य है। यह सब जानते हुए भी तुमने इसे त्याग दिया है। तुम बहुत बुद्धिमान हो।” यम नचिकेता को बुद्धिमान कहते हैं। वह आत्मज्ञान को महत्व देता है। सांसारिक सुखों को त्याज्य मानता है। समाज की मुख्यधारा सांसारिक भोगों व कर्मफल को महत्व देती है। ऐसा स्वाभाविक भी है लेकिन नचिकेता तत्कालीन समाज में अपवाद हैं। चिन्तन दर्शन का उद्देश्य संसार त्याग नहीं संसार को ठीक से समझना है लेकिन केवल समझना बुद्धि विलास होगा। संसार को समझकर उसे सुंदर बनाना भी दर्शन का उद्देश्य है। ज्ञान का अवसान कर्म में ही होना सही होता है। नचिकेता को भी आत्मज्ञान पाकर संसार को सुंदर बनाने के कर्म करने चाहिए।
सृष्टि का आदि तत्व दर्शन और विज्ञान की प्रमुख चुनौती है। आदि तत्व या मूल तत्व सदा से रहा होगा। शून्य से आदि तत्व सहित किसी भी तत्व का जन्म हो सकता। मूल तत्व सदा से है, सदा रहना भी चाहिए। यहां दर्शन की समस्या है। क्या आदि तत्व या मूल तत्व किसी रूप या आकार वाला है? क्या अरूप है? बिना रूप वाला होगा तो वह आंख की पकड़ में नहीं आ सकता। क्या वायु की तरह वह देखा नहीं जाता लेकिन स्पर्श से उनका अनुभव संभव है? भारतीय चिन्तन में उसका मूल परिचय कालावधि के आधार पर ही मिलता है। उसे ‘नित्य’ बताया गया है। यह परिचय उसे काल प्रभाव से मुक्त रखता है। इसके अलावा उसके सारे परिचय निषेध पद्धति से ही दिए गए हैं। यम को काल का देवता कहा गया है। उनके प्रबोधन में नित्य शब्द कई बार आया है। यम ने नचिकेता को बताया “वह गूढ़ है- रहस्यपूर्ण है। वह सर्वव्यापी है। गहन वन संसार में रहने वाला यह तत्व सदा से है। वह दिखाई नहीं पड़ता- दुर्दर्शं है। शुद्ध बुद्धि वाले साधक अध्यात्मयोग द्वारा उसे जानकर हर्ष और शोक त्याग देते हैं। इस धर्ममय ज्ञान को सुनकर व ठीक से विचार कर अणु जैसे सूक्ष्म तत्व को जानने वाला आनंद पाता है, आनंदमय हो जाता है- मोदते मोदनीयं। नचिकेता तुम्हारे लिए मैं यह मार्ग खुला मानता हूं।”
कठोपनिषद् में ज्ञान प्राप्ति की यात्रा के तीन चरण हैं। पहला है – सुनना, दूसरा सुने हुए को ठीक से प्राप्त करना और तीसरा उस पर विचार करना। तीनों कठिन है। गूढ़ विषय को सुनना आसान नहीं। यह रोचकहीन जटिल होने के कारण पूरा ग्राह्य नहीं होता। इसलिए उसे प्राप्त करना कठिन होता है। सुने हुए पर विचार करना बहुत कठिन है। सोच विचार में हमारी संस्कारबद्ध बुद्धि निष्कर्ष देती है। तर्क काम नहीं आते। सामाजिक मान्यताएं ही मार्गदर्शक होती हैं। मान्यताएं भी बहुधा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से नहीं गढ़ी जातीं। आस्था विश्वास भी सोच विचार को प्रभावित करते हैं। कार्य-कारण की श्रंखला पर भी गहन विचार नहीं हो पाते। इसलिए नचिकेता ने सभी बातों को समेटकर एक सारगर्भित प्रश्न पूछा, “धर्म और अधर्म से परे, कार्य कारण रूप संसार से परे और भूत भविष्य से भी परे जो आप जानते हैं, वही मुझे बताइए।” यह प्रश्न बड़ा खूबसूरत है। नचिकेता ने धर्म अधर्म को बेकार बताया। भूत भविष्य अर्थात काल प्रभाव से मुक्त ज्ञान की बात की और संसार से परे तत्वज्ञान की जिज्ञासा की। उसने दिक्काल व धर्म अधर्म का भी अतिक्रमण करने वाले ज्ञान प्राप्ति की इच्छा की। कठोपनिषद् का यह प्रश्न सभी जिज्ञासुओं का दुलारा है। इसका उत्तर समझने के लिए कठोपनिषद् का एक और पाठ करने में आलस्य क्यों? (हिफी)

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