प्रेरणास्पद लघुकथा बच्चो का कोना

‘अत्ता’

दो ऋषियों की कथा

 

जिस प्रकार से अगबर के नौ रत्नों में बीरवल को अपनी बुद्धिमता और हाजिर जवाबी के लिये जाना जाता है वैसे ही तेनाली राम अथवा तेनाली रामलिंगम की भी प्रतिष्ठा है। वे विजयनगर सम्राट कृष्णदेव राय की सभा में सबसे अलग रत्न कहलाते थे। उनके किस्मों में जहां उनकी तुरत बुद्धि की चतुराई झलकती है वहीं इनसे हमें कई प्रकार की सीख भी मिलती है। तेनाली राम ने हमेशा ही राज्य में अत्याचारियों तथा धूर्तों का पर्दाफाश किया और उनकी असलियत से लोगों को अवगत कराया। उनकी कहानियां आज भी उतनी ही मनोरंजक और शिक्षाप्रद हैं जितनी तब थीं। प्रस्तुत कथा उनकी ऐसी ही बुद्धिमता और चतुराई को दर्शाती है-
प्रत्येक उपनिषद में ईश्वर की महिमा को विस्तार से दर्शाया गया है। ईश्वर का अस्तित्व प्रत्येक प्राणी, वस्तु में मिलता है। इसी ईश्वर की महिमा से ओतप्रोत की कथा प्रस्तुत की गई है। शौनक और अमिप्रतारी नाम के दो ऋषि साथ में रहते थे। वे दोनों ही वायुदेव के शासक थे, अतः उनका अधिकांश समय वायुदेव की उपासना में व्यतीत होता था। उन दोनों के अनेक शिष्य थे, जो आश्रम में ही रहकर दोनों ऋषियों से शिक्षा ग्रहण करते थे एवं आश्रम की व्यवस्था भी देखते थे।
दोपहर के समय जब दोनों ऋषि तपस्या के लिये बैठे तो एक ब्रह्मचारी भिक्षा पात्र लिये उनके समीप पहुंचा। उसने ऋषियों से कहा, ‘‘मैं भूखा हूं ऋषिवर! भोजन का कुछ अंश मेरे भिक्षा पात्र में डाल दीजिए।’’
ऋषियों ने इस बिन बुलाए मेहमान को विचित्रता भरी नजरों से देखा। फिर वे इस ब्रह्मचारी से बोले, ‘नहीं बालक! तुम्हें देने के लिए अतिरिक्त भोजन हमारे पास नहीं है।
ब्रह्मचारी बोले, ‘ऋषिवर! किसी भूखे को भोजन कराना हमारे शास्त्रों में सबसे पुण्यकार्य माना गया है। अतः मेरा निवेदन है कि आप मुझ भूखे को भोजन का कुछ अंश अवश्य दें।’’
ऋषियों ने फिर दृढ़ता से इंकार कर दिया लेकिन भिक्षुक ब्रह्मचारी निराश नहीं हुआ। उसने कहा, ‘अच्छा, पूज्य ऋषिवरों मुझे भोजन नहीं देते न सही, किंतु मेरे कुछ प्रश्नों का उत्तर ही दे दो।’
पूछा क्या पूछना चाहते हो?’ ऋषि बोले!
किस देवता की उपासना करते हैं आप?
ऋषि बोले, हम दोनों उस वायुदेव की उपासना करते हैं जो ‘प्राण’ नाम से भी जाना जाता है और सबकी साँस।
ब्रह्मचारी बोला, ‘तब तो आप यह बात भी अवश्य जानते होंगे कि वायु समस्त विश्व में व्याप्त है। चल-अचल, दृश्य, अदृश्य जो कुछ भी है, वह सब प्राण ही हैं।?
‘हांँ-हाँ, पता है हमें।’’ ऋषि बोले।
‘अब यह बताइए कि यह भोजन आपने किसे अर्पित किया था? ब्रह्मचारी ने फिर प्रश्न किया।
‘प्राण को अर्पित किया था हमने यह भोजन।’ ऋषि बोले, इसलिए अर्पित किया था हमने यह भोजन प्राण को, क्योंकि प्राण सारे ब्रह्मांड में व्याप्त है।’’
यह सुनकर ब्रह्मचारी ने फिर प्रश्न किया,  ऋषिवर! यदि प्राण सारे ब्रह्मांड में व्याप्त हैं तो मुझमें भी प्राण का वास है, मैं भी तो ब्रह्माण्ड का अंश हूं।’
‘हाँ-हाँ, अवश्य हो।’ ऋषियों ने सहमति जताई।
‘भूख से पीड़ित मेरे इस शरीर में, जो कि आपके समक्ष खड़ा है प्राण का ही संचार है, है ना?’ ब्रह्मचारी ने पूछा।
हाँ, है। इस विषय में तुम्हारा कथन सच है।’’
‘तब ऋषिवर! मुझे अन्न से वंचित रखकर आप मानो प्राण को ही अन्न से वंचित कर रहे हैं। उसे हमारे शास्त्रों में ‘अत्ता’ अर्थात प्रलयकाल में सबको अपना ग्रास बनाने वाला, सबको अपने भीतर लील लेने वाला कहा गया है। ये सभी भौतिक पदार्थ, यहां तक कि मनुष्य की वाणी, आंख, कान, नाक, तथा मन भी उसी में विलीन हो जाते हैं। फिर क्या बात है कि इन सबको अपना भक्ष्य बनाने वाले परमेश्वर को आप नहीं जानते? यदि आप लोग परमात्मा की इस महिमा को जानते होंते, तो मुझे भोजन अवश्य देते। आपने तो मनुष्य-मनुष्य में भेद कर दिया है।’’ ब्रह्मचारी के मुख से ऐसे तत्वज्ञान की बातें सुनकर ऋषि चकित रह गया।
तब शौनक कापेय ने उस ब्रह्मचारी से कहा, ‘हे ब्रह्मचारी! ऐसी बात नहीं है कि हम चराचर जगत को प्रलय काल में अपना भोजन बनाने वाले परमात्मा को नहीं जानते, निश्चय ही हम उसे परमदेव प्रजाओं को पैदा करने वाले उस अखंड नियमों वाले परमेश्वर को जातने हैं। प्रलयकाल में यह सृष्टि उसी में विलीन हो जाती है।  वह परमात्मा चाहे हमारी भांति साधारण भोजन नहीं करता, किंतु वह तो सारी सृष्टि को ही समेटकर उसे अपना भोज्य बनाता है। विद्वान लोग उसी की आराधना करते हैं।इसके पश्चात दोनों ऋषियों ने स्नेहपूर्वक ब्रह्मचारी को अपने निकट बैठाया और उसे भोजन खिलाकर, उसका समुचित सत्कार किया।
तृप्त होकर उस ब्रह्मचारी ने भी दोनों ऋषियों को उन शास्त्रों को मर्म समझाया, जिन्हें ऋषियों ने केवल पढ़ा था, किंतु उनका मर्म नहीं समझा था। ब्रह्मचारी द्वारा शास्त्रों का मर्म समझाने का सार यही था कि भौतिक सृष्टि तो अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी तथा आकाश, से बनी है जबकि यह जीव जिस समय शरीर में प्रविष्ट होता है तो पांचों प्राणें से उसका संचलान करता है, किंतु परमात्मा यथा समय इस सृष्टि को अपनी इच्छानुसार जब चाहता है, अपनी इच्छित अवस्था में ले आता है। इसीलिए वेदांत में उसे ‘अत्ता’ अर्थात चराचर जगत को ग्रहण करने वाला कहा गया है। (हिफी)

 

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button