प्रेरणास्पद लघुकथा 

ब्राह्मण की मातृभाषा

राजा कृष्णदेव राय के दरबार में रहते तेनालीराम को काफी समय बीत चुका था और उनकी विद्धता की कहानियाँ दूर-दूर तक फैल चुकी थी। एक दिन राजा कृष्णदेव राय के दरबार में एक अत्यंत विद्वान ब्राह्मण आया।
उसने महाराजा को अपना परिचय देने के बाद कहा, राजन! मैंनु सुना है कि आपके पास एक-से-एक विद्वान दरबार हैं।’
आपने ठीक सुना है ब्राह्मण बोला! महाराज ने प्रसन्न दृष्टि से तेनालीराम की ओर देखते हुए कहा, उसने अपने दरबारियों की बुद्धिमता पर गर्व है।
तो क्या कोई बता सकता है कि मेरी मातृभाषा क्या है?
कहकर उस ब्राह्मण ने धारा प्रवाह बोलना शुरू किया। पहले तेंगुलु, फिर तमिल, कन्नड़, मराठी, मलयालय और कांेकणी भाषा में भी उसने धाराप्रवाह व्याख्यान दिया। वह जो भी भाषा बोलता, वही भाषा उसकी मातृभाषा लग रही थी।
अपने उदगार व्यक्त करने के बाद वह बोला, ‘राजन! क्या आप या आपका कोई दरबारी बता सकता है कि मेरी मातृभाषा क्या है?
सभी दरबारी चुप। कोई समझ न पाया। महाराजा ने तेनालीराम की ओर देखा, तब वे अपने स्थान से उठकर बोले, ‘महाराज।’ मेरी विनती है कि इन विद्वान अतिथि को कुछ दिन अतिथि गृह में ठहराएं तथा मुझे उनकी सेवा का अवसर प्रदान करें।’
ऐसा ही किया गया। तेनालीराम उसी दिन से उनकी सेवा में लग गए। एक दिन जब अतिथि एक पेड़ के नीचे आसन पर बैठे थे कि पांव छूने के बहाने तेनालीराम ने कांटा चुभा दिया। पंडित जी दर्द से छटपटाए और तमिलन भाषा में ‘अम्मा-अम्मा’ करने लगे। तेनालीराम ने बैद्य को बुलाकर तत्काल उनका उपचार कराया। दूसरे दिन विद्वान सभा में आए और बोले, ‘महाराज! आज चैथा दिन है, क्या मेरे प्रश्न का उत्तर मिलेगा?’
महाराजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम की ओर देखा, तो वे उठकर बोले, ‘महाराज! इनकी मातृभाषा है।’
‘वाह! वाह तेनालीराम!’ महाराजा के कुछ कहने से पहले ही अतिथि बोल पड़े, ‘आपने बिलकुल सही बताया, किंतु आपको ये कैसे पता चला?’
‘हे सम्मानित अतिथि! आपके पांव में जब मैंने कल कांटा चुभाया था तब आप तमिल भाषा में ‘अम्मा-अम्मा पुकार रहे थे, इसी से मैंने अनुमान लगाया कि आपकी मातृभाषा तमिल है। क्यांेकि जब व्यक्ति संकट में होता है, तब अपने वास्तविक रूप में आ जाता है। मैंने जानबूझकर आपके पांव में कांटा चुभाया था, इसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूं।’
‘आप धन्य हैं तेनालीराम-आप वास्तव में विद्वान हैं। महाराज! मैं तेनालीराम के उत्तर से संतुष्ट हूं।’
अतिथि से यह सुनते ही महाराजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम को अपने गले का कीमती हार उतारकर भेंटस्वरूप दिया। दरबारियों ने भी उनकी बुद्धि की भूरि-भूरि प्रशंसा की। इस प्रकार तेनालीराम ने सभी दरबारियों की लाज रख ली। (हिफी

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