अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

सगुन ब्रह्म रति उर अधिकाई

 

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

कागभुशुंडि जी गरुड़ जी को बता रहे हैं कि किस प्रकार शंकर जी के श्रापों को भुगतते हुए बिना किसी कष्ट के उन्होंने ब्राह्मण रूप में मनुष्य का शरीर पाया। ब्राह्मण शरीर पाकर प्रभु श्रीराम के चरणों में उनकी लय लग गयी। उनके माता-पिता की मृत्यु होने पर वे भजन करने जंगल में चले गये। वहां जो भी मुनि मिलते, उनसे प्रभु श्रीराम के गुण सुनते। इस प्रकार प्रबल इच्छा हुई कि श्री रामचन्द्र जी के चरणों के एक बार दर्शन करूं। मुनियों से पूछने पर वे कहते कि ईश्वर तो सर्वत्र व्याप्त है। यह निर्गुण मत उन्हें अच्छा नहीं लगता और सगुण ब्रह्म के प्रति उनका प्रेम बढ़ता गया। इस प्रकार वे लोमश मुनि के आश्रम में पहुंच गये। इसी प्रसंग को यहां बताया गया है। अभी तो कागभुशुंडि जी ब्राह्मण शरीर में प्रौढ़ हो गये हैं-
प्रौढ़ भएं मोहि पिता पढ़ावा, समुझउँ सुनउँ गुनउँ नहिं भावा।
मन ते सकल बासना भागी, केवल रामचरन लय लागी।
कहु खगेस अस कवन अभागी, खरी सेव सुरधेनुहि त्यागी।
प्रेम मगन मोहि कछु न सोहाई, हारेउ पिता पढ़ाइ पढ़ाई।
भए कालबस जब पितु माता, मैं बन गयउँ भजन जन त्राता।
जहँ जहँ बिपिन मुनीस्वर पावउँ, आश्रम जाइ जाइ सिरु नावउँ।
बूझउँ तिन्हहि राम गुन गाहा, कहहिं सुनउँ हरषित खगनाहा।
सुनत फिरउँ हरि गुन अनुवादा, अब्याहत गति संभुप्रसादा।
छूटी त्रिबिधि ईषना गाढ़ी, एक लालसा उर अति बाढ़ी।
रामचरन बारिज जब देखौं, तब निज जन्म सफल करि लेखौं।
जेहि पूछउँ सोइ मुनि अस कहईं, ईस्वर सर्ब भूतमय अहईं।
निर्गुन मत नहिं मोहि सोहाई, सगुन ब्रह्म रति उर अधिकाई।
गुर के बचन सुरति करि रामचरन मनु लाग।
रघुपति जस गावत फिरउँ छन छन नव अनुराग।
कागभुशुंडि जी कहते हैं कि जब मैं सयाना (थोड़ा बड़ा) हो गया तो पिता जी मुझे पढ़ाने लगे। मैं समझता, सुनता और बिचारता पर मुझे पढ़ना अच्छा नहीं लगता था। मेरे मन से सारी वासनाएं (इच्छाएं) भाग गयीं, केवल श्रीराम जी के चरणों में लय लग गयी। हे गरुड़ जी कहिए, ऐसा कौन अभागा होगा जो कामधेनु को छोड़कर गधी की सेवा करेगा। प्रेम में मग्न रहने के कारण मुझे कुछ भी नहीं सुहाता था, पिता जी पढ़ा-पढ़ा कर हार गये। मेरे माता-पिता जब काल के वश हो गये अर्थात् स्वर्गवासी हो गये, तब मैं भक्तों की रक्षा करने वाले श्रीराम जी का भजन करने के लिए वन को चला गया। वन में जहां-जहां मुनीश्वरों के आश्रम पाता, वहां-वहां जाकर उन्हें सिर नवाता। हे गरुड़ जी, उनसे (मुनियों से) मैं श्रीराम जी के गुणों की कथाएं पूछता वे कहते और मैं हर्षित होकर सुनता। इस प्रकार मैं सदा सर्वदा श्री हरि के गुणगान सुनता-फिरता। शिवजी की कृपा से मेरी सर्वत्र अवाधित गति थी अर्थात् मैं जहां चाहता, वहां जा सकता था। मेरी तीनों प्रकार की प्रबल वासनाएं (पुत्र, धन और मान) छूट गयीं और हृदय में एक यही लालसा बढ़ गयी थी कि जब श्रीराम जी के चरण कमलों के दर्शन करूंगा, तब अपना जन्म सफल हुआ समझूं। मैं जिनसे भी पूछता वे मुनि ऐसा कहते कि ईश्वर तो सभी प्राणियों में हैं, सचराचर में हैं। यह निर्गुण मत मुझे अच्छा नहीं लगता। हृदय में सगुण ब्रह्म पर प्रीति बढ़ रही थी। पूर्व जन्म में ब्राह्मण गुरु के बचनों का स्मरण करके मेरा मन श्रीराम जी के चरणों में लग गया। मैं क्षण-क्षण नया-नया प्रेम प्राप्त करता हुआ श्री रघुनाथ जी का यश गाता हुआ फिरता था।
मेरु सिखर बट छाया मुनि लोमस आसीन।
देखि चरन सिरु नायउँ बचन कहेउँ अतिदीन।
सुनि मम बचन बिनीत मृदु मुनि कृपाल खगराज।
मोहि सादर पूँछत भए द्विज आयहु केहि काज।
तब मैं कहा कृपा निधि तुम्ह सर्वग्य सुजान।
सगुन ब्रह्म अवराधन मोहि कहहु भगवान।
कागभुशुंडि जी कहते हैं कि हे गरुड़ जी, रघुनाथ जी का यश गाते हुए मैं सुमेरु पर्वत के शिखर पर पहुंचा जहा बरगद (बट वृक्ष) की छाया में लोमश मुनि बैठे थे। उन्हें देखकर मैंने उनके चरणों में सिर नवाया और अत्यंत दीन बचन कहे। हे पक्षीराज, मेरे अत्यंत नम्र और कोमल बचन सुनकर कृपालु मुनि मुझसे आदर के साथ पूछने लगे- हे ब्राह्मण आप किस कारण से यहां आये हैं? तब मैंने कहा कि हे कृपा निधि, आप सर्वज्ञ हैं और सुजान हैं। हे भगवान, मुझे सगुण ब्रह्म की आराधना की प्रक्रिया बताइए।
तब मुनीस रघुपति गुन गाथा, कहे कछुक सादर खगनाथा।
ब्रह्मग्यान रत मुनि बिग्यानी, मोहि परम अधिकारी जानी।
लागे करन ब्रह्म उपदेसा, अज अद्वैत अगुन हृदयेसा।
अकल अनीह अनाम अरूपा, अनुभव गम्य अखंड अनूपा।
मन गोतीत अमल अबिनासी, निर्विकार निरवधि सुखरासी।
सो तैं ताहि तोहि नहिं भेदा, बारि बीचि इव गावहिं वेदा।
मेरे इस प्रकार निवेदन करने पर हे खगनाथ (गरुड़) लोमश मुनि ने श्री रघुनाथ जी के गुुणों की कुछ कथाएं आदर सहित कहीं, फिर वे ब्रह्म ज्ञान परायण विज्ञानवान (तत्व ज्ञानी) मुनि मुझेे परम अधिकारी जानकर ब्रह्म का उपदेश करने लगे कि वह अजन्मा है, अद्वैत है निर्गुण है और हृदय का स्वामी है। उसे कोई बुद्धि के द्वारा माप नहीं सकता। वह इच्छा रहित, नाम रहित, रूप रहित, अनुभव से जानने योग्य, अखंड और उपमा रहित हैं। वह मन और इन्द्रियों से परम निर्मल, बिनाश रहित, निर्विकार, सीमा रहित और सुख की राशि है। वेद ऐसा गाते हैं कि वही तू है (तत्वमसि) पानी और पानी की लहर की भांति उसमें और मुझमें कोई भेद नहीं है।
बिबिधि भांति मोहि मुनि समुझावा, निर्गुनमत मम हृदय न आवा।
पुनि मैं कहेउँ नाइ पद सीसा, सगुन उपासन कहहु मुनीसा।
राम भगति जल मम मन मीना, किमि बिलगाइ मुनीस प्रवीना।
सोइ उपदेस कहहु करि दाया, निज नयनन्हि देखौं रघुराया।
लोमश मुनि ने मुझे अनेक प्रकार से समझाया लेकिन निर्गुण मत मेरे हृदय में नहीं बैठा। मैंने फिर मुनि के चरणों में सिर नवाकर कहा कि हे मुनीश्वर, मुझे सगुण ब्रह्म की उपासना कहिए। मेरा मन राम भक्ति रूपी जल में मछली हो रहा है। हे चतुर मुनीश्वर, ऐसी दशा में वह उससे अलग कैसे हो सकता है। आप दया करके मुझे वही उपदेश कहिए जिससे श्री रघुनाथ जी को मैं अपनी आंखों से देख सकूं। -क्रमशः (हिफी)

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