गीता-माधुर्य-29
योगेश्वर कृष्ण ने अपने सखा गांडीवधारी अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में जब मोहग्रस्त देखा, तब कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग का गूढ़ वर्णन करके अर्जुन को बताया कि कर्म करना ही तुम्हारा कर्तव्य है, फल तुम्हारे अधीन है ही नहीं। जीवन की जटिल समस्याओं का ही समाधान करना गीता का उद्देश्य रहा है। स्वामी रामसुखदास ने गीता के माधुर्य को चखा तो उन्हें लगा कि इसका स्वाद जन-जन को मिलना चाहिए। स्वामी रामसुखदास के गीता-माधुर्य को हिफी फीचर (हिफी) कोटि-कोटि पाठकों तक पहुंचाना चाहता है। इसका क्रमशः प्रकाशन हम कर रहे हैं।
-प्रधान सम्पादक
रागपूर्वक विषयों का सेवन करने से क्या होता है?
गुणों से युक्त होकर जन्मते-मरते और भोगों को भोगते समय भी यह जीवात्मा स्वरूप से निर्लिप्त ही रहता है-ऐसा रागपूर्वक विषयों का सेवन करने वाले मूढ़ मनुष्य नहीं जानते।
तो फिर कौन जानता है?
ज्ञानरूपी नेत्रवाले विवेकी मनुष्य ही जानते हैं।। 10।।
ज्ञाननेत्र किसके खुलते हैं और किसके नहीं खुलते भगवन्?
जिन्होंने अपने अन्तःकरण को शुद्ध कर लिया है अर्थात् नित्यप्राप्त को महत्त्व दिया है, ऐसे यत्नशील योगी लोग तो अपने-आप में स्थित तत्त्वको जानते हैं अर्थात् उनके तो ज्ञान नेत्र खुलते हैं, पर जिन्होंने अपना अन्तःकरण शुद्ध नहीं किया है अर्थात् स्वतः प्राप्त विवेक का आदर नहीं किया है, ऐसे अविवेकी मनुष्य यत्न करने पर भी इस तत्त्वको नहीं जानते अर्थात् उनके ज्ञाननेत्र नहीं खुलते।। 11।।
अपने-आप में स्थित तत्त्व क्या है ?
मैं ही हूँ। सूर्य में आया हुआ जो तेज सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करता है और जो तेज चन्द्रमा में है तथा जो तेज अग्नि में है, उसको तू मेरा ही तेज जान। तात्पर्य है कि सूर्य, चन्द्र और अग्नि में मैं ही तेजरूप से स्थित होकर सम्पूर्ण संसार को प्रकाशित करता हूँ।। 12।।
आप और क्या करते हैं भगवन्?
मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्ति से सम्पूर्ण प्राणियों को धारण करता हूँ और मैं ही रसमय चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण वनस्पतियों को पुष्ट करता हूँ।। 12।।
और आप क्या काम करते हैं?
प्राणियों के शरीर में रहने वाला मैं ही प्राण-अपान से युक्त (जठराग्नि) बनकर प्राणियों के द्वारा खाये गये चार प्रकार से (भोज्य, पेय, चोष्य और लेह्य) अन्न को पचाता हूँ।। 14।।
और आपकी क्या विलक्षणता है?
मैं ही हृदय में रहता हूँ। मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (संशय आदि दोषोंका नाश) होता है। सम्पूर्ण वेदों के द्वारा मैं ही जानने योग्य हूँ। वेदों के तत्त्व का निर्णय करने वाला और वेदों को जानने वाला भी मैं हूँ।। 15।।
आप जिनके हृदयमें हैं, वे सब कौन हैं?
इस मनुष्य लोक में क्षर (विनाशी) और अक्षर (अविनाशी)- ये दो प्रकार के पुरुष हैं। इनमें सम्पूर्ण प्राणियों के शरीर विनाशी और जीवात्मा अविनाशी कहा जाता
है।। 16।।
क्षर और अक्षरके सिवाय और भी कोई है ?
हाँ, क्षर और अक्षर से अन्य उत्तम पुरुष है, जो संसार में परमात्मा नाम से कहा गया है और जो त्रिलोकी का भरण- पोषण करने वाला अविनाशी ईश्वर है।। 17।।
उत्तम पुरुष तो अन्य है, पर आप कौन हैं भगवन् ?
भैया! वह उत्तम पुरुष मैं ही हूँ। मैं क्षरसे तो अतीत हूँ और अक्षर से भी उत्तम हूँ, इसलिये लोक में और वेद में मैं पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूँ।। 18।।
आप पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हैं तो इससे मनुष्य को क्या लाभ है भगवन् ?
हे भारत ! जो मोहरहित भक्त मुझे इस प्रकार पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ हो जाता है अर्थात् उसके लिये कुछ भी जानना शेष नहीं रहता। फिर वह सब प्रकार से केवल मेरा ही भजन करता है अर्थात् मुझमें ही लगा रहता है।। 19।।
जब ऐसी ही बात है तो सब आपमें ही क्यों नहीं लग जाते भगवन्?
हे निष्पाप अर्जुन! मैंने जो बात तुम्हारे से कही है, यह अत्यन्त गोपनीय बात है। इसको जानकर मेरा भक्त ज्ञात- ज्ञातव्य, कृतकृत्य और प्राप्त प्राप्तव्य हो जाता है।। 20।।
।। ऊँ श्रीपरमात्मने नमः ।।
सोलहवाँ अध्याय
उस अत्यन्त गोपनीय बात का अधिकारी कौन होता है भगवन् ?
दैवी सम्पत्ति वाला होता है।
दैवी सम्पत्ति वाले मनुष्य के क्या लक्षण होते हैं?
भगवान् बोले- वे इस प्रकार हैं-
1-मेरे ही दृढ़ भरोसे अभय रहना।
2-अन्तःकरण में मुझे प्राप्त करने का एक दृढ़ निश्चय होना।
3-मुझे तत्त्वसे जानने के लिये हरेक परिस्थिति में सम रहना।
4- सात्त्विक दान देना।
5- इन्द्रियों को वश में करना।
6-अपने कर्तव्य का पालन करना।
7-शास्त्रों के सिद्धान्तों को अपने जीवन में उतारना।
8-अपने कर्तव्य का पालन करते समय जो कष्ट आये, उसको प्रसन्नतापूर्वक सहना।
9-तन-मन-वाणी की सरलता।
10-तन-मन-वाणी से किसी भी प्राणी को कभी किंचिन्मात्र भी कष्ट न पहुँचाना।
11-जैसा देखा, सुना और समझा, वैसा-का-वैसा प्रिय शब्दों में कह देना।
12-मेरा स्वरूप समझकर किसी पर कभी क्रोध न करना।
16-सांसारिक कामनाओं का त्याग करना।
14-अन्तःकरण में राग-द्वेषजनित हलचल न होना।
15-चुगली न करना।
16-सम्पूर्ण प्राणियों पर दया का भाव होना।
17-सांसारिक विषयों में न ललचाना।
18-हृदय का कोमल होना।
19-अकर्तव्य करने में लज्जा होना।
20-चपलता (उतावलापन) न होना।
21-शरीर और वाणी में तेज (प्रभाव) होना।
22-अपने में दण्ड देने की सामथ्र्य होने पर भी अपराधी के अपराध को माफ कर देना।
23-हरेक परिस्थिति में धैर्य रखना।
24-शरीरको शुद्ध रखना।
25-बदला लेने की भावना न होना।
26-अपने में श्रेष्ठता का भाव न होना।
हे भरतवंशी अर्जुन! ये सभी दैवी सम्पत्ति को प्राप्त हुए मनुष्य के लक्षण हैं अर्थात् इन लक्षणों वाले को मेरी भक्ति का अधिकारी मानना चाहिये।। 1-3।। (हिफी) (क्रमशः साभार)
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)