
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
हमारे देश में पूर्वजों ने सादा जीवन उच्च विचार की शिक्षा दी है। इसके बाद भी कुछ लोगों का शाकाहार आदि के बारे में गलत तर्क होता है। गोस्वामी तुलसीदास ने इस प्रसंग में यही बताया कि जब शूर्पणखा ने रावण को खर-दूषण और त्रिशिरा के बध की बात बतायी तो रावण सोच में पड़ गया कि इतने बलशाली राक्षसों को भगवान के सिवाय और कोई नहीं मार सकता। इसलिए यदि भगवान ने अवतार लिया है तो उनके वाणों से ही मेरी मृत्यु हो, तभी मोक्ष मिलेगा क्योंकि तामसी शरीर से अच्छे कर्म नहीं हो सकते। इसीलिए तामसी भोजन का भारतीय दर्शन में विरोध किया गया है। अभी तो शूर्पणखा रावण की सभा में विलाप कर रही है-
सभा माझ परि व्याकुल बहु प्रकार कह रोइ।
तोहि जिअत दसकंधर मोरि कि असि गति होइ।
सुनत सभासद उठे अकुलाई, समुझाई गहि बांह उठाई।
कह लंकेस कहसि निज बाता, केइं तव नासा कान निपाता।
अवध नृपति दसरथ के जाए, पुरूष सिंध बन खेलन आए।
समुझि परी मोहि उन्ह कै करनी, रहित निसाचर करिहहिं धरनी।
जिन्ह कर भुज बल पाइ दसानन, अभय भए विचरत मुनि कानन।
देखत बालक काल समाना, परम धीर धन्वी गुन नाना।
अतुलित बल प्रताप द्वौ भ्राता, खल बधरत सुरमुनि सुख दाता।
सोभा धाम राम अस नामा, तिन्ह के संग नारि एक स्यामा।
रूप रासि विधि नारि संवारी, रति सतकोटि तासु बलिहारी।
तासु अनुज काटे श्रुति नासा, सुनि तव भगिनि करहिं परिहासा।
खर दूषन सुनि लगे पुकारा, छन महुं सकल कटक उन्ह मारा।
खर दूषन तिसिरा कर धाता, सुनि दस सीस जरे सब गाता।
सूपनखहि समुझाइ करि बल बोलेसि बहु भांति।
गयउ भवन अति सोच बस, नींद परइ नहिं राति।
रावण की सभा में विलाप करते हुए शूर्पणखा जमीन पर गिरी हुई बहुत प्रकार से रोकर कह रही है कि अरे दशग्रीव तेरे जीते जी क्या मेरी ऐसी दशा होनी चाहिए? शूर्पणखा के बचन सुनते ही सभासद व्याकुल हो उठे। उन्होंने शूर्पणखा की बांह पकड़कर उठाया और समझाया। रावण ने कहा तू अपनी बात तो बता किसने तेरे नाक और कान काटे हैं? शूर्पणखा बोली अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र जो पुरूषों में सिंह के समान हैं। वन में शिकार खेलने आए हैं। मुझे उनकी करनी ऐसी समझ पड़ी है कि वे इस पृथ्वी को राक्षसों से रहित कर देंगे। उनकी भुजाओं का बल पाकर हे दशमुख, मुनि लोग बिना डर के वन में विचरण करते हैं। वे देखने में तो बालक हैं, लेकिन काल के समान है। वे परमवीर श्रेष्ठ धनुर्धर और अनेक गुणों से युक्त हैं। दोनों भाइयों का बल और प्रताप अतुलनीय है। वे दुष्टों का वध करने मेें लगे हैं और देवता तथा मुनियों को सुख देने वाले हैं। वे शोभा के धाम हैं। उनका राम नाम है। उनके
साथ एक तरूणी सुंदरी स्त्री है।
विधाता ने उस स्त्री को ऐसी रूप की राशि बनाया है कि सौ करोड़ रति भी निछावर है। राम के छोटे भाई ने मेरे नाक-कान काट डाले। मैं तेरी बहन हूं यह सुनकर वे मेरा उपहास उड़ाने लगे। शूर्पणखा ने बताया कि मेरी पुकार सुनकर खर और दूषण सहायता करने आए पर उन्होंने (राम ने) क्षण भर में सारी सेना को मार डाला। खर, दूषण और त्रिशिरा का वध सुनकर रावण के सारे अंग जल उठे। उसने शूर्पणखा को समझाकर बहुत प्रकार से अपने बल का बखान किया लेकिन मन में वह अत्यंत चिंता वश होकर अपने महल में गया। उसे रात भर नींद नहीं पड़ी।
सुर नर असुर नाग खग माहीं, मोरे अनुचर कहं कोउ नाहीं।
खर दूषन मोहि सम बलवंता, तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता।
सुर रंजन भंजन महि भारा, जौं भगवंत लीन्ह अवतारा।
तौ मैं जाइ बैरू हठि करऊं, प्रभु सर प्रान तजे भव तरऊं।
होइहि भजनु न तामस देहा, मन क्रम बचन मंत्र दृढ़ एहा।
जौं नर रूप भूप सुत कोऊ, हरिहउं नारि जीति रन दोऊ।
चला अकेल जान चढ़ि तहवां, बस मारीच सिंधु तट जहवां।
इहां राम जसि जुगुति बनाई, सुनहु उमा सो कथा सुहाई।
लछिमन गए बनहिं जब लेन मूल फल कंद।
जनक सुता सन बोले बिहसि कृपा सुख वृंद।
रावण सोच रहा है कि देवता, मनुष्य, असुर नाग और पक्षियों में कोई ऐसा नहीं जो मेरे सेवक का भी मुकाबला कर सके। खर-दूषन तो मेरे ही समान बलवान थे उन्हें भगवान के सिवाय और कौन मार सकता है? देवताओं को आनंद देने वाले और पृथ्वी का भार हरण करने वाले भगवान ने ही यदि अवतार लिया है तो मैं जाकर हठ पूर्वक उनसे वैर करूंगा और प्रभु के वाण के आघात से प्राण छोड़कर इस भव सागर को पार कर जाऊंगा अर्थात तर जाऊंगा। इस तामस शरीर से भजन तो होने से रहा अतएव मन, बचन और कर्म से यही दृढ़ निश्चय है। रावण ने यह भी सोचा कि वे मनुष्य रूपी कोई राजकुमार होंगे तो उन दोनों को रण में जीतकर उनकी स्त्री का हरण कर लूंगा। यह बिचार कर रावण अकेला ही रथ पर चढ़कर वहां पहुंचा जहां समुद्र तट पर मारीच रहता था।
भगवान शंकर पार्वती जी को कथा सुनाते हुए कहते हैं कि यहां श्रीरामचन्द्र जी ने जैसी युक्ति रची, वह सुंदर कथा भी सुनो। लक्ष्मण जी जब कंद-मूल और फल लेने के लिए वन में चले गये तब अकेले में कृपा और सुख के समूह श्रीरामचन्द्र जी हंसकर जानकी जी से बोले-
सुनहु प्रिया व्रत रूचिर सुसीला, मैं कुछ करबि ललित नर लीला।
तुम्ह पावक महुं करहु निवासा, जौ लगि करौं निसाचर नासा।
जबहिं राम सब कहा बखानी, प्रभु पद धरि हियं अनल समानी।
निज प्रतिबिम्ब राखि तहं सीता, तैसइ सील रूप सुविनीता।
लछिमनहुं यह मरमु न जाना, जो कछु चरित रचा भगवाना।
दस मुख गयउ जहां मारीचा, नाइ माथ स्वारथ रत नीचा।
नवनि नीच कै अति दुखदायी, जिमि अंकुस धनु, उरग, बिलाई।
भय दायक खल कै प्रिय बानी, जिमि अकाल के कुसुम भवानी।
करि पूजा मारीच तब सादर पूछी बात।
कवन हेतु मन व्यग्र अति अकसर आयहु तात।
हे प्रिये, हे सुंदर पातिव्रत धर्म का पालन करने वाली सुशीले, सुनो, मैं अब कुछ मनोहर मनुष्य लीलाएं करूंगा, इसलिए जब तक मैं राक्षसों का विनाश करूं तब तक तुम अग्नि में निवास करो। श्रीराम जी ने ज्यों ही सब समझाकर कहा त्यों ही श्री सीता जी प्रभु के चरणों को हृदय में रखकर अग्नि में समा गयी। सीता जी ने अपनी ही छाया मूर्ति वहां रख दी जो उनके जैसे ही शील, स्वभाव और रूप वाली तथा वैसी ही विनम्र थी। भगवान ने जो कुछ लीला रची, इस रहस्य को लक्ष्मण जी भी नहीं जान पाये।
उधर, स्वार्थ परायण और नीच रावण वहां गया जहां मारीच था। उसने मारीच मामा को प्रणाम किया। भगवान शंकर कहते हैं कि नीच लोगों का झुकना (नम्रता) भी अत्यंत दुखदायी होता है जैसे अंकुश, धनुष, सांप और बिल्ली का झुकना। अंकुश को नीचे करके ही प्रहार किया जाता है। धनुष को झुकाकर चलाया जाता है, सांप यदि झुके नहीं तो उसका विष घाव तक नहीं पहुंगेगा और बिल्ली
झपटने से पूर्व झुक जाती है। हे भवानी (पार्वती) दुष्ट की मीठी वाणी भी उसी प्रकार भय देने वाली होती है जैसे बिना मौसम के फूल। इसलिए मारीच भी रावण के इस व्यवहार से सशंकित था। मारीच ने रावण की पूजा करके आदर पूर्वक पूछा- हे तात, आपका मन किस कारण इतना व्यग्र है और आप अकेले ही क्यों आये?-क्रमशः (हिफी)
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