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वर्ण-आश्रम के यज्ञ कत्र्तव्य

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (सत्तरहवां अध्याय-05)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक

प्रश्न-ऐसा भोजन तामस पुरुषों को प्रिय होता है-इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इससे भगवान् ने यह दिखलाया है कि उपर्युक्त लक्षणों से युक्त भोजन तामस है और तामस
प्रकृति वाले मनुष्य ऐसे ही भोजन को पसंद किया करते हैं, यह उनकी पहचान है।
अफलाकांक्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते।
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः।। 11।।
प्रश्न-‘विधिदृष्टः‘ पद का क्या अर्थ है और यहाँ इस विशेषण के प्रयोग का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-‘विधिदृष्टः’ से भगवान् ने यह दिखलाया है कि श्रौत और स्मार्त यज्ञों में से जिस वर्ण या आश्रम के लिये शास्त्रों में जिस यज्ञ का कर्तव्य रूप से विधान किया गया है, वह शास्त्रविहित यज्ञ ही सात्त्विक है। शास्त्र के विपरीत मनमाना यज्ञ सात्त्विक नहीं है।
प्रश्न-यहाँ ‘यज्ञः’ पद किसका वाचक है?
उत्तर-देवता आदि के उद्देश्य से घृतादि के द्वारा अग्नि में हवन करना या अन्य किसी प्रकार से किसी भी वस्तु का समर्पण करके किसी भी यथायोग्य पूजा करना ‘यज्ञ’ कहलाता है।
प्रश्न-करना ही कर्तव्य है-इस प्रकार मन का समाधान करके किये हुए यज्ञ को सात्त्विक बतलाने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-यदि फल की इच्छा ही न हो तो फिर कर्म करने की आवश्यकता ही क्या है, ऐसी शंका हो जाने पर मनुष्य की यज्ञ में प्रवृत्ति ही नहीं हो सकती, अतएव करना ही कर्तव्य है इस प्रकार मन का समाधान करके किये जाने वाले यज्ञ को सात्त्विक बतलाकर भगवान् ने यह भाव प्रकट किया है कि अपने-अपने वर्णाश्रम के अनुसार जिस यज्ञ का जिसके लिये शास्त्रों में विधान है, उसको अवश्य करना चाहिये। ऐसे शास्त्र विहित कर्तव्य रूप यज्ञ का न करना भगवान् के आदेश का उल्लंघन करना है-इस प्रकार यज्ञ करने के लिये मन में दृढ़ निश्चय करके निष्कामभाव से जो यज्ञ किया जाता है, वही यज्ञ सात्त्विक होता है।
प्रश्न-‘अफलाकांक्षिभिः’ पद कैसे कर्ता का वाचक है और उनके द्वारा किये हुए यज्ञ को सात्त्विक बतलाने का क्या भाव है?
उत्तर-यज्ञ करने वाले जो पुरुष उस यज्ञ से स्त्री, पुत्र, धन, मकान, मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा, विजय या स्वर्ग आदि की प्राप्ति एवं किसी प्रकार के अनिष्ट की निवृत्ति रूप इस लोक या परलोक के किसी प्रकार के सुख भोग या दुःखनिवृत्ति की जरा भी इच्छा नहीं करते-उनका वाचक अफलाकांक्षिभिः पद हैं। उनके द्वारा किये हुए यज्ञ को सात्त्विक बतलाकर यहाँ यह भाव दिखलाया गया है कि फल की इच्छा से किया हुआ यज्ञ विधि पूर्वक किये जाने पर भी पूर्ण सात्त्विक नहीं हो सकता, सात्त्विक भाव की पूर्णता के लिये फलेच्छा का त्याग परमावश्यक है।
अभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैच यत्।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्।। 12।।
प्रश्न-‘तु’ अव्यय का प्रयोग किसलिये किया गया है?
उत्तर-सात्त्विक यज्ञ से इसका भेद दिखलाने के लिये ‘तु’ अव्वय का प्रयोग किया गया है।
प्रश्न-दम्भ के लिये यज्ञ करना क्या है?
उत्तर-यज्ञ-कर्म में आस्था न होने पर भी जगत् में अपने को यज्ञनिष्ठ प्रसिद्ध करने के उद्देश्य से जो यज्ञ किया जाता है, उसे दम्भ के लिये यज्ञ करना कहते हैं।
प्रश्न-फल का उद्देश्य रखकर यज्ञ करना क्या है?
उत्तर-स्त्री, पुत्र, धन, मकान, मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा, विजय और स्वर्गादि की प्राप्ति रूप इस लोक और परलोक के सुख भोगों के लिये या किसी प्रकार की अनिष्ट की निवृत्ति के लिये जो यज्ञ करना है-वह फल प्राप्ति के उद्देश्य से यज्ञ करना है।
प्रश्न-‘एव’ ‘अपि’ और ‘च’ इन अव्ययों के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर-इनके प्रयोग से भगवान् ने यह दिखलाया है कि जो यज्ञ किसी फल प्राप्ति के उद्देश्य से किया गया है, वह शाó विहित और श्रद्धापूर्वक किया हुआ होने पर भी राजस है एवं जो दम्भपूर्वक किया जाता है वह भी राजस है फिर जिसमें ये दोनों दोष हों उसके ‘राजस’ होने में तो कहना ही क्या है?
विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्।
श्रद्धाविरिहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते।। 13।।
प्रश्न-‘विधिहीनम्’ पद कैसे यज्ञ का वाचक है?
उत्तर-जो यज्ञ शाó विहित न हो या जिसके सम्पादन में शाó विधि की कमी हो, अथवा जो शाóोक्त विधान की अवहेलना करके मनमाने ढंग से किया गया हो, उसे विधि हीन कहते हैं।
प्रश्न-‘असृष्टान्नम्’ पद कैसे यज्ञ का वाचक है?
उत्तर-जिस यज्ञ में ब्राह्मण भोजन या अन्नदान आदि के रूप में अन्न का त्याग नहीं किया गया हो, उसे असृष्टान्न कहते हैं।
प्रश्न-‘मन्त्रहीनम्’ पद कैसे यज्ञ का बोधक है?
उत्तर-जो यज्ञ शाóोक्त मन्त्रों से रहित हो, जिसमें मन्त्र प्रयोग हुए ही न हों या विधिवत् न हुए हों, अथवा अवहेलना से त्रुटि रह गयी हो-उस यज्ञ को ‘मन्त्रहीन’ कहते हैं।
प्रश्न-‘अदक्षिणम्’ पद कैसे यज्ञ का वाचक है?
उत्तर-जिस यज्ञ में यज्ञ कराने वालों को एवं अन्यान्य ब्राह्मण-समुदाय को दक्षिणा न दी गयी हो, उसे ‘अदक्षिण’ कहते हैं।
प्रश्न-‘श्रद्धा विरहित’ कौन सा यज्ञ है?
उत्तर-जो यज्ञ बिना श्रद्धा के केवल मान, मद, मोह, दम्भ और अहंकार आदि की प्रेरणा से किया जाता है उसे ‘श्रद्धा विरहित’ कहते हैं।-क्रमशः (हिफी)

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