सम-सामयिक

सियासत में कच्छतीवु द्वीप

 

लोकसभा चुनाव के दौरान अपने चिरप्रतिद्वन्द्वी कांग्रेस को घेरने के लिए भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कच्छतीवु द्वीप का उल्लेख किया है। यह द्वीप भारत और श्रीलंका के मध्य स्थित है, जिसका निश्चित रूप से सामरिक महत्व है। भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने कच्छतीवु द्वीप को श्रीलंका को सौंप दिया था। इस द्वीप को लेकर भारत और श्रीलंका के बीच विवाद काफी पहले से चल रहा था। इस द्वीप पर जाफना के साम्राज्य का कब्जा रहा तो मद्रास प्रेसीडेन्सी का भी अधिकार रहा है। हमारे देश के ज्यादातर झगड़े ब्रिटिश हुकूमत ने खड़े किये। भारत और श्रीलंका दोनों ही ब्रिटिश उपनिवेश रहे हैं। उसी दौरान एक सर्वे में कच्छतीवु द्वीप को श्रीलंका का हिस्सा बताया गया। हालांकि भारत के ब्रिटिश डेलिगेशन ने इसे चैलेन्ज किया था। श्रीमती इंदिरा गांधी ने श्रीलंका से दोस्ती प्रगाढ़ करने के लिए यह द्वीप कुछ समझौतों के साथ सौंप दिया था। उस समय भारतीय मछुआरों को वहां तक जाने की इजाजत थी लेकिन बाद मंे श्रीलंका ने समझौते को तोड़ते हुए भारतीय मछुआरों की धरपकड़ शुरू कर दी। अब तमिलनाडु मंे राजनीति के तहत ही यह मामला फिर उठाया गया है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 31 मार्च को एक रैली में कांग्रेस पर निशाना साधते हुए कहा कि उसने जानबूझकर कच्छतीवु द्वीप को श्रीलंका को सौंप दिया। प्रधानमंत्री ने कहा कि जिस तरीके के नए तथ्य सामने आए हैं, उससे पता लगता है कि कांग्रेस की सरकार ने जानबूझकर कच्छतीवु द्वीप छोड़ दिया। इससे हर भारतीय गुस्से में है। कच्छतीवु द्वीप भारत के रामेश्वरम से श्रीलंका के बीच एक छोटा सा द्वीप है। रामेश्वरम से इसकी दूरी 12 मील है तो श्रीलंका के जाफना से 10.5 मील। कच्छतीवु द्वीप का कुल क्षेत्रफल करीब 285 एकड़ है। इस द्वीप की लंबाई 1.6 किलोमीटर है तो चैड़ाई 300 मीटर है। कच्छतीवु द्वीप के सबसे करीब आबादी वाला इलाका डेल्फ आइलैंड है, जो श्रीलंका के अधिकार क्षेत्र में आता है। कच्छतीवु द्वीप में इकलौती इमारत सेंट एंथोनी चर्च है, जो 20वीं सदी में बनी थी। प्रत्येक साल फरवरी और मार्च के महीने में यहां सालाना पूजा आयोजित की जाती है, जिसमें भारत और श्रीलंका दोनों के पादरी सर्विस आयोजित करते हैं और दोनों देशों के श्रद्धालुओं को यहां जाने की इजाजत मिलती है। साल 2023 में करीब 2500 भारतीय श्रद्धालु यहां गए थे। 20वीं सदी में यहां एक मंदिर का निर्माण भी हुआ था और थंगाची मठ के पुजारी यहां नियमित पूजा अर्चना भी करते थे। हालांकि बाद में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान इस द्वीप पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया।

कच्छतीवु द्वीप बिल्कुल निर्जन है। यहां पर कोई रहता नहीं है। इसकी वजह यह है कि कच्छतीवु द्वीप पर पीने के पानी की कोई सुविधा नहीं है। दूसरा, इस द्वीप को लेकर भारत-श्रीलंका के बीच विवाद भी है, इसलिये सुरक्षा कारणों से यहां किसी को जाने की इजाजत नहीं है। कच्छतीवु द्वीप को लेकर भारत और श्रीलंका के बीच लंबे समय से विवाद चलता आ रहा है। मध्य युग में कच्छतीवु द्वीप पर श्रीलंका के जाफना साम्राज्य का नियंत्रण था। 17वीं शताब्दी आते-आते इस द्वीप का नियंत्रण रामनाथ जमींदारी के हाथ में आ गया जो रामेश्वरम से करीब 55 किलोमीटर उत्तर पश्चिम में स्थित था। ब्रिटिश हुकूमत के दौरान कच्छतीवु द्वीप पर मद्रास प्रेसीडेंसी का अधिकार हो गया। साल 1921 में भारत और श्रीलंका, दोनों ने इस द्वीप पर अपना दावा किया। उस वक्त दोनों ब्रिटिश कॉलोनी थे। इसी दौरान एक सर्वे हुआ और कच्छतीवु द्वीप को श्रीलंका का हिस्सा बताया गया, लेकिन भारत के एक ब्रिटिश डेलिगेशन ने इसे चुनौती दी और भारत का ही हिस्सा बताया। साल 1974 तक यह रस्साकसी चलती रही और विवाद हल नहीं हो पाया। साल 1974 में जब इंदिरा गांधी भारत की प्रधानमंत्री थीं, तब उन्होंने भारत और श्रीलंका के बीच समुद्री सीमा विवाद को हल करने का प्रयास किया। दोनों देशों के बीच कई दौर की बातचीत हुई और इसी दौरान एक समझौता हुआ, जिसे ‘इंडिया-श्रीलंका मैरिटाइम एग्रीमेंट’ के नाम से जाना जाता है। इंदिरा गांधी ने श्रीलंका के तत्कालीन राष्ट्रपति श्रीमाव भंडारनायके के साथ कुल 4 सामुद्रिक समझौतों पर दस्तखत किये। इन्हीं समझौता में से एक था कच्छतीवु द्वीप को श्रीलंका को सौंपना। उस वक्त इंदिरा गांधी ने कहा कि कच्छतीवु द्वीप का कोई सामरिक महत्व नहीं है। इस द्वीप को श्रीलंका को सौंप देने से भारत और उसके दक्षिणी पड़ोसी के बीच रिश्ते और मजबूत होंगे। उस वक्त जो समझौता हुआ उसमें कच्छतीवु द्वीप श्रीलंका को सौंपने के बावजूद यह तय हुआ कि भारतीय मछुआरों को इस द्वीप तक जाने की इजाजत मिलेगी। एक तरीके से इस समझौते में मछली मारने के विवाद का कोई हल नहीं हुआ। इसके बाद कई मौके पर श्रीलंका प्रशासन ने भारतीय मछुआरों को वहां जाने पर पकड़ लिया। साल 1976 में जिस वक्त देश में इमरजेंसी थी, उस वक्त इंदिरा गांधी सरकार ने श्रीलंका से एक और समझौता किया। इस समझौते के तहत दोनों देशों के मछुआरों को इस द्वीप के आसपास जाने से रोक दिया गया। इंदिरा गांधी की सरकार ने जब कच्छतीवु द्वीप को श्रीलंका को सौंपने का फैसला किया तो तमिलनाडु सरकार से कोई सलाह नहीं ली। हालांकि एक पक्ष दावा करता है कि करुणानिधि से इस बारे में राय-मशविरा की गई थी। उस वक्त इंदिरा गांधी के फैसले के खिलाफ तमिलनाडु में खूब प्रदर्शन हुआ। मछुआरे सड़क पर उतर गए। साल 1991 में जब भारत ने श्रीलंका के सिविल वॉर में अपनी सेना भेजी, तब तमिलनाडु विधानसभा में एक बार फिर कच्छतीवु द्वीप को भारत में वापस शामिल करने की मांग उठी। इसके बाद से लगातार तमिलनाडु की पॉलिटिक्स में यह मामला उठता रहा है। पिछले साल जब श्रीलंका के प्रधानमंत्री भारत आ रहे थे तब तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखकर कच्छतीवु द्वीप को वापस लेने की मांग उठाई थी। बीजेपी भी लगातार कच्छतीवु द्वीप का जिक्र करती रही है और इस बहाने कांग्रेस पर निशाना साधती रही है।

चाहे व्यापार हो, चाहे पर्यटन हो, हर क्षेत्र में भारत, श्रीलंका के लिए एक बेहतर विकल्प है। श्रीलंका, अमेरिका और ब्रिटेन के बाद सबसे ज्यादा निर्यात भारत को ही करता है। श्रीलंका में हर पांच से छह पर्यटकों में से एक भारतीय होता है। श्रीलंका अपने आर्थिक संकट से निकलने की तमाम कोशिशें कर रहा है। चीन के कर्ज के मकड़जाल से भी उसे भविष्य में बाहर आना होगा। इन सबके लिए उसे बड़े निवेशक की दरकार है। जिस तरह से भारत हमेशा ही मदद करते आया है, निवेशक के तौर पर भारत से बेहतर विकल्प श्रीलंका के लिए कोई और देश नहीं हो सकता है। आर्थिक संकट के बाद श्रीलंका का भारत पर भरोसा और मजबूत हुआ है। भारत की दोस्ती को लेकर अब श्रीलंका का ऐसा भरोसा जागा है कि उसके शीर्ष नेताओं की ओर से बार-बार कहा जा रहा है कि दुनिया का कोई भी मुल्क श्रीलंका के लिए भारत जैसा भरोसेमंद नहीं हो सकता है। ऐसे हालात मंे कच्छतीवु द्वीप के मामले को उठाना सफल कूटनीति मानी जा रही है। (हिफी)

(अशोक त्रिपाठी-हिफी फीचर)

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