होलिकोत्सव पर विशेष

राजस्थान में दिखते होली के विविध रंग

 

होली के अवसर पर राजस्थान के विभिन्न शहरों में कईं तरह के आयोजन किए जाते हैं। राजस्थान में होली के विविध रंग देखने में आते हैं। होली के दिनों में जयपुर के इष्टदेव गोविंद देव मंदिर में नजारा देखने लायक होता है। राजस्थान के मंदिरों में होली पर रंग-गुलाल के साथ फाग उत्सव का आयोजन किया जाता है।

बीकानेरी होली का सबसे आकर्षण का केन्द्र होता है पुष्करणा समाज के हर्ष व व्यास जाति के बीच खेला जाने वाला डोलची। पानी का खेल डोलची चमड़े से बना एक ऐसा पात्र है जिसमे पानी भरा जाता है व जोरदार प्रहार के साथ सामने बाले की पीठ पर इस पानी को मारा जाता है। बाड़मेर में पत्थर मार होली खेली जाती है तो अजमेर में कोड़ा अथवा सांतमार होली लोग बहुत धूम-धाम से मनाते हैं। हाड़ोती क्षेत्र के सांगोद कस्बे में होली के अवसर पर नए हिजड़ों को हिजड़ों की जमात में शामिल किया जाता है। इस अवसर पर बाजार का न्हाण और खाड़े का न्हाण नामक लोकोत्सवों का आयोजन होता है। खाडे के न्हाण में जम कर अश्लील भाषा का प्रयोग किया जाता है।

भरतपुर के ब्रजांचल में फाल्गुन का आगमन कोई साधारण बात नहीं है। ब्रज के गांव की चैपालों पर ब्रजवासी ग्रामीण अपने लोकवाद्य बम के साथ अपने ढप, ढोल और झांझ बजाते हुए रसिया गाते हैं। डीग क्षेत्र की ग्रामीण महिलाएं अपने सिर पर भारी भरकम चरकुला रखकर उस पर जलते दीपकों के साथ नृत्य करती हैं। संपूर्ण ब्रज में इस तरह आनंद की अमृत वर्षा होती है। यह परम्परा ब्रज की धरोहर है। बरसाने, नंदगांव, कामां, डीग आदि स्थानों पर ब्रज की लठमार होली की परम्परा आज भी यहां की संस्कृति को पुष्ट करती है। चैत्र कृष्ण द्वितीया को दाऊजी का हुरंगा भी प्रसिद्ध है। ब्रहृमानगरी पुष्कर की कपड़ा फाड़ होली ने देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी अपनी धाक जमा ली है। यहां विदेशी सैलानियों के साथ स्थानीय और देशी पर्यटक बड़ी धूमधाम के साथ होली खेलते हैं और एक दूसरे के कपड़े भी फाड़ते हैं।

मेवाड़ अंचल के भीलवाड़ा जिले के बरून्दनी गांव में होली के सात दिन बाद शीतला सप्तमी पर खेली जाने वाली लठमार होली का अपना एक अलग ही मजा रहा है। माहेश्वरी समाज के स्त्री-पुरूष यह होली खेलते हैं। डोलचियों में पानी भरकर पुरूष महिलाओं पर डालते हैं और महिलाएं लाठियों से उन्हें पीटती हैं। यहां होली के बाद बादशाह की सवारी निकाली जाती हैं। वहीं शीतला सप्तमी पर चित्तौड़गढ़ वालों की हवेली से मुर्दे की सवारी निकाली जाती है। इसमें लकड़ी की सीढी बनाई जाती है और जिंदा व्यक्ति को उस पर लिटाकर अर्थी पूरे बाजार में निकालते हैं। इस दौरान युवा इस अर्थी को लेकर पूरे शहर में घूमते हैं। लोग इन्हें रंगों से नहला देते हैं।

शेखावाटी की होली पूरे देश में प्रसिद्ध है। फाल्गुन में सांझ ढलते ही धमाल सुनाई देने लगे हैं। चंग की थाप पर पांव थिरकने लगे हैं और बांसुरी की सुरीली आवाज कानों में मिश्री घोलने लगी है। होली नजदीक आने पर शेखावाटी में अंचल के गांव-गांव और ढाणी-ढाणी में ऐसा माहौल देखने को मिल रहा है। उमंग व मस्ती भरे पर्व होली की शुरुआत तब होती है, जबकि बसन्त अपने पूर्ण यौवन पर होता है और बांसुरी की मदहोश करती धुनें और चंग की थाप पर मानव का मन-मयूर नाचने लगता है।

शेखावाटी अंचल के हर गांव कस्बे में रात्रि में लोग एकत्रित होकर चंग की मधुर धुन पर देर रात्रि तक धमाल गाते हुए मोहल्लों में घूमते रहते हैं। होली के अवसर पर बजाया जाने वाला चंग भी इसी क्षेत्र में ही विशेष रूप से बनाया जाता है। चंग की आवाज तो ढोलक की माफिक ही होती है, मगर बनावट ढोलक से सर्वथा भिन्न। चंग ढोलक से काफी बड़ा व गोल घेरे नुमा होता है। होली के प्रारम्भ होते ही गांवों में लोग अपने-अपने चंग (ढप) संभालने लगते हैं। होली चूंकि बसंत ऋतु का प्रमुख पर्व है तथा बसंत पंचमी बसंत ऋतु प्रारम्भ होने की द्योतक है। इसलिए इस अंचल में बसंत पंचमी के दिन से चंग (ढप) बजाकर होली के पर्व की विधिवत शुरुआत कर दी जाती है।

राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र में हर मोहल्ले में अपनी चंग पार्टी होती है। चंग शेखावाटी क्षेत्र का प्रसिद्ध नृत्य है। इसमें प्रत्येक पुरुष चंग बजाते हुये नृत्य करते हैं। यह मुख्यतः होली के दिनों में किया जाता है। चंग को प्रत्येक पुरुष अपने एक हाथ से थाम कर और दूसरे हाथ से कटरवे का ठेका बजाते हुए वृत्ताकार घेरे में नृत्य करते हैं। घेरे के मध्य में एकत्रित होकर धमाल और होली के गीत गाते हैं। होली के एक पखवाडे पहले गींदड शुरू हो जाता है। जगह- जगह भांग घुटती है। हालांकि अब ये नजारे कम ही देखने को मिलते हैं, जबकि, शेखावाटी में ढूंढ का चलन अभी है। परिवार में बच्चे के जन्म होने पर उसका ननिहाल पक्ष और बुआ कपडे़ और खिलौने होली पर बच्चे को देते हैं।

शेखावाटी अंचल में होली पर कस्वों में विशेष रूप से गींदड़ नृत्य किया जाता है। गुजराती नृत्य गरवा से मिलता-जुलता गींदड़ नृत्य में काफी लोग विभिन्न प्रकार की चिताकर्षक वेशभूषा में नंगाड़े की आवाज पर एक गोल घेरे में हाथ में डंडे लिए घूमते हुए नाचते हैं तथा आपस में डंडे टकराते हैं। प्रारम्भ में धीरे-धीरे शुरू हुआ यह नृत्य धीरे-धीरे रफ्तार पकड़ता जाता है। इसी रफ्तार में डंडों की आवाज भी टकरा कर काफी तेज गति से आती है तथा नृत्य व आवाज का एक अद्भुत दृश्य उत्पन्न हो जाता है जिसे देखने वाला हर दर्शक रोमांचित हुए बिना नहीं रह पाता है। होली के अवसर पर चलने वाले इन कार्यक्रमों से यहाँ का हर एक व्यक्ति स्वयं में एक नई स्फूर्ति का संचार महसूस करता है।

इन नृत्यों की लोक परम्परा को जीवित रखने के लिए क्षेत्र की कुछ संस्थाएं विगत कुछ समय से विशेष प्रयासरत हैं। झुंझुनू शहर में सद्भाव नामक संस्था गत 18 वर्षों से होली के अवसर पर चंग,गींदड़ कार्यक्रम का आयोजन करती आ रही है, जिसे देखने दूर-दराज गाांवों से काफी संख्या में लोग आते हैं। झुंझुनू, फतेहपुर शेखावाटी,रामगढ़ शेखावाटी, मण्डावा, लक्ष्मणगढ़, चूरू, बिसाऊ, लक्ष्मणगढ़ कस्बों का गींदड़ नृत्य पूरे देश में प्रसिद्व है। इसी कारण चंग व गीन्दड़ नृत्य का आयोजन शेखावाटी से बाहर अन्य प्रान्तो में भी होने लगा है। धुलंडी के दिन इन नृत्यों का समापन होता है।

लोगों का कहना है कि अगर होली के त्यौहार से लोक वाद्य चंग और धमाल को निकाल दिया जाये तो होली का त्यौहार बेजान हो जायेगा। ग्रामीण चंग और धमाल को होली पर्व की आत्मा मानते है। आज ये परम्परा धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। पहले यहां होली का त्योहार प्यार के साथ मनाया जाता था, सब साथ मिलकर चंग पर धमाल गाते थे लेकिन आजकल वो सब खत्म सा हो गया है। क्षेत्र में बढ़ते शराब के प्रचलन के कारण लोग रात्रि में घरों से बाहर निकलने से डरने लगे हैं तथा गांवों में भी पहले की तरह सामंजस्य नहीं रहा। इसके अलावा ऑडियो कैसेटों के बढ़ते प्रचलन से भी इस लोक पर्व को कृत्रिम सा बना दिया है। कैसेटों की वजह से पर्व की मौलिकता ही समाप्त होने जा रही है। (हिफी)

(रमेश सर्राफ धमोरा-हिफी फीचर)

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