अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

आसुरी सम्पत्ति वाले के लक्षण

गीता-माधुर्य-30

 

गीता-माधुर्य-30
योगेश्वर कृष्ण ने अपने सखा गांडीवधारी अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में जब मोहग्रस्त देखा, तब कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग का गूढ़ वर्णन करके अर्जुन को बताया कि कर्म करना ही तुम्हारा कर्तव्य है, फल तुम्हारे अधीन है ही नहीं। जीवन की जटिल समस्याओं का ही समाधान करना गीता का उद्देश्य रहा है। स्वामी रामसुखदास ने गीता के माधुर्य को चखा तो उन्हें लगा कि इसका स्वाद जन-जन को मिलना चाहिए। स्वामी रामसुखदास के गीता-माधुर्य को हिफी फीचर (हिफी) कोटि-कोटि पाठकों तक पहुंचाना चाहता है। इसका क्रमशः प्रकाशन हम कर रहे हैं।
-प्रधान सम्पादक

अनधिकारी कौन होता है भगवन् ?
आसुरी सम्पत्ति वाला।
आसुरी सम्पत्ति वाले मनुष्य के क्या लक्षण होते हैं?
वे इस प्रकार हैं-
1- दम्भ (दिखावटीपन) करना।
2-घमण्ड करना अर्थात् ममता वाली चीजों को लेकर अपनेमें बड़प्पन का अनुभव करना।
3-अहंतावाली चीजों को लेकर अभिमान करना।
4-क्रोध करना।
5-मन, वाणी, बर्ताव आदि में कठोरता रखना।
6-सत्-असत् कर्तव्य-अकर्तव्य आदि के ज्ञान (विवेक)- को न देना।
हे पृथानन्दन ! ये सभी आसुरी सम्पत्ति को प्राप्त हुए मनुष्यके लक्षण हैं अर्थात् इन लक्षणों वाला मनुष्य प्रायः मेरी भक्ति का अधिकारी नहीं होता।। 4।।
इस दैवी और आसुरी सम्पत्ति का क्या फल होता है भगवन्?
दैवी सम्पत्ति मुक्ति देने वाली और आसुरी सम्पत्ति बाँधने वाली होती है। परन्तु हे पाण्डव! तुम्हें शोक (चिन्ता) नहीं करना चाहिये; क्योंकि तुम दैवी सम्पत्ति को प्राप्त हुए हो।। 5।।
आसुरी सम्पत्ति बन्धन कारक कैसे होती है?
इस लोक में दो तरह के प्राणियों की सृष्टि है- दैवी और आसुरी। दैवी सम्पत्ति को तो मैंने विस्तार से कह दिया, अब हे पार्थ! तुम आसुरी सम्पत्ति को विस्तार से सुनो। आसुरी सम्पत्ति वाले मनुष्य किस में प्रवृत्त होना चाहिये और किससे निवृत्त होना चाहिये- इसको नहीं जानते तथा उनमें न तो शौचाचार (बाह्य शुद्धि) होता है, न सदाचार (श्रेष्ठ आचरण) होता है और न सत्य पालन ही होता है।। 6-7।।
उनमें शौचाचार आदि क्यों नहीं होते हैं भगवन्?
उनकी दृष्टि ही विपरीत होती है। वे यही कहते हैं कि यह संसार असत्य है अर्थात् इसमें कोई भी बात (शास्त्र, धर्म आदि) सत्य नहीं है। इस संसार में धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप आदि की कोई मर्यादा नहीं है। इस संसार को रचने वाला कोई ईश्वर नहीं है; किन्तु स्त्री को पुरुष की और पुरुष को स्त्री की इच्छा हुई तो दोनों के संयोग से यह संसार पैदा हो गया। इसलिये इस संसार की उत्पत्ति का हेतु काम ही है, इसके सिवाय और कोई कारण नहीं है।। 8।।
उन आसुरी सम्पत्ति वालों के कर्म कैसे होते हैं?
उपर्युक्त नास्तिक दृष्टिका आश्रय लेने वाले वे लोग अपने नित्य स्वरूप (आत्मा) को नहीं मानते, उनकी बुद्धि तुच्छ होती है, उनके कर्म अत्यन्त उग्र (भयानक) होते हैं, वे जगत के शत्रु होते हैं। ऐसे मनुष्यों की सामथ्र्य दूसरों का नाश करने के लिए ही होती है।
वे कभी पूरी न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेकर दम्भ, अभिमान और मद में चूर रहने वाले तथा अपवित्र नियमों को धारण करने वाले मनुष्य मोह के कारण अनेक दुराग्रहों को पकड़कर संसार में विचरते रहते हैं।। 9-10।।
उनके भाव कैसे होते हैं?
वे रहने वाली बड़ी-बड़ी चिन्ताओं का आश्रय लेते हैं। वे पदार्थों का संग्रह और उनका भोग करने में ही लगे रहने वाले और ‘जो कुछ है, वह इतना (सुख भोगना और संग्रह करना) ही है’ ऐसा निश्चय करने वाले होते हैं।। 11।।
वे किस उद्देश्य को लेकर चलते हैं भगवन्?
सैकड़ों आशाओं की फाँसियों से बँधे हुए वे मनुष्य काम और क्रोध के परायण होकर केवल भोग भोगने के उद्देश्य से ही धनका संग्रह करने की चेष्टा करते रहते हैं।। 12।।
उनके मनोरथ कैसे होते हैं?
आज इतना धन तो हमने प्राप्त कर लिया और अब इस मनोरथ को प्राप्त कर लेंगे। इतना धन तो हमारे पास है ही, इतना धन और हो जायगा। उस शत्रुको तो हमने मार दिया और उन दूसरे शत्रुओं को भी हम मार डालेंगे। हम सर्वसमर्थ हैं, सिद्ध हैं, बलवान् हैं, सुखी हैं और भोगों को भोगने वाले हैं। हम बड़े धनवान् हैं। बहुत-से मनुष्य हमारा साथ देने वाले हैं। हमारे समान दूसरा कौन हो सकता है? हम खूब यज्ञ करेंगे, दान देंगे और फिर मौज करेंगे। इस तरह वे अज्ञान से मोहित होकर मनोरथ करते रहते हैं।। 13-15।।
ऐसे मनुष्यों की मरने पर क्या गति होती है भगवन्?
तरह-तरह के भ्रमों में पड़े हुए, मोहजाल में उलझे हुए तथा पदार्थों के संग्रह और भोग में आसक्त हुए वे मनुष्य भयंकर नरकों में गिरते हैं।। 16।।
भोगों में आसक्त हुए उन आसुरी सम्पत्ति वाले मनुष्यों का पतन करने वाले भाव कौन-से होते हैं?
वे अपने को ही पूज्य (श्रेष्ठ) मानने वाले, अकड़ रखने वाले तथा धन और मानके मदमें चूर रहने वाले होते हैं।
ऐसे लोग शुभ कर्म भी तो कर सकते हैं भगवन्?
हाँ, वे यज्ञ आदि शुभ कर्म करते तो हैं, पर करते हैं दम्भ (दिखावटीपन) और अविधिपूर्वक तथा नाम मात्र के लिए।। 17।।
वे ऐसा क्यों करते हैं?
कारण कि वे अहंकार, हठ, घमण्ड, काम और क्रोध का आश्रय लिये हुए रहते हैं।
उनके और क्या भाव होते हैं भगवन्?
वे मनुष्य अपने और दूसरों के शरीरों में रहने वाले मुझ अन्तर्यामी के साथ द्वेष करते हैं तथा मेरे और दूसरों के गुणों में दोष-दृष्टि रखते हैं।। 18।।
ऐसे आसुर भावों का क्या परिणाम होता है भगवन्?
उन द्वेष करने वाले, क्रूर स्वभाव वाले और संसार में महान् नीच और अपवित्र मनुष्यों को मैं बार-बार कुत्ता, गधा, बाघ, कौआ, उल्लू, गीध, साँप, बिच्छू आदि आसुरी योनियों में गिराता हूँ।। 19।।
फिर क्या होता है?
हे कुन्तीनन्दन ! वे मूढ़ मनुष्य मुझे प्राप्त न करके जन्म- जन्मान्तर में आसुरी योनियों को प्राप्त होते हैं और फिर उससे भी अधिक अधम गतिमें अर्थात् भयंकर नरकों में चले जाते हैं।। 20।। (हिफी)
(क्रमशः साभार)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button