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आत्मा में पूर्ण निष्ठा रखें

अष्टावक्र गीता-11

 

महाज्ञानी अष्टावक्र कहते हैं कि आत्मतत्व ही मुख्य है, शरीर नहीं। इसलिए आत्मा में ही पूरी तरह से निष्ठा रखनी चाहिए। पूर्ण निष्ठा होने से आत्मा के बारे मंे ज्ञान मिलेगा। अष्टावक्र राजा जनक को पुनर्जन्म का कारण बताते हुए कहते हैं साकार को मिथ्या समझें और निराकार को स्थिर जान लें तो संसार मंे पुनः उत्पत्ति नहीं होगी।

अष्टावक्र गीता-11

 

अष्टावक्र जी राजा जनक को बताते है अशान्ति तेरा स्वभाव ही नहीं है। यह हिंसा, छीन-झपट, संघर्ष, बेचैनी महत्वाकांक्षा, ईष्र्या, आक्रमण सब राजनीति है जो मनुष्य की प्रतिभा का निकृष्टतम रूप है।

मनुष्य की दैविक प्रतिभा का दुरुपयोग है। इसमें कहीं भी शान्ति व चैन नहीं है। राजनीति में संघर्ष ही संघर्ष है चाहे वह धन की राजनीति हो, या पद की, जिसका कोई परिणाम नहीं निकलता। शान्ति और मुक्ति इसमें है ही नहीं।

यह तो आत्मा के ही गुण हैं। तू अगाध बुद्धि रूप है। तेरे में बुद्धि का अनन्त सागर भरा है और तू बुद्धिहीनों जैसी चेष्टा कर रहा है। तेरी यह चेष्टा तुझे क्षुब्ध बनाये हुए है अन्यथा तू क्षोभ शून्य है। तूने स्वयं को नहीं, प्रकृति को महत्व दिया है इसलिए तू अपने से परे के पदार्थों की निष्ठा को छोड़कर इस चैतन्य मात्र में निष्ठा वाला हो। अष्टावक्र केवल निष्ठा की बात कहते हैं कि आत्मा में पूर्ण निष्ठा होने से उसका ज्ञान होगा, कोई विधि काम नहीं करेगी। जो सदा से तुम्हारे पास है उसमें निष्ठा ही पर्याप्त है। वह सजगता और साक्षी भाव से ही दृश्य होगा।
सूत्र: 18
साकारामनृतं विद्धि निराकारं तु निश्चलम्।
एतत् तत्त्वोपदेशेन न पुनर्भवसम्भवः।। 18।।

अर्थात: साकार को मिथ्या जान, निराकार को निश्चल (स्थिर) जान। इस तत्व के उपदेश से संसार में पुनः उत्पत्ति नहीं होती।
व्याख्या: इस सूत्र में अष्टावक्र पुनर्जन्म का कारण बताते हुये कहते हैं कि-यह निराकार और साकार, यह स्थूल और सूक्ष्म, यह जड़ और चेतन, यह सृष्टि और परमात्मा उसी परमात्म चैतन्य तत्व के रूप हैं। यह साकार, स्थूल, जड़, सृष्टि आदि उस निराकार, सूक्ष्म तत्व की अभिव्यक्ति मात्र है।

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यह साकार सृष्टि जैसी दिखाई देती है वैसी है नहीं। यह उस सूक्ष्म का प्रकट एवं परिवर्तित रूप है। इसलिए इसमें वास्तविकता नहीं है। है कुछ और तथा दिखाई कुछ और देता है। यही भ्रम तथा अध्यास है, इसलिए मिथ्या है, क्योंकि इसका रूप, गुण बदलता रहता है, आज एक रूप है कल वह बदलकर दूसरा हो जायेगा।

इसलिए उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। इसमें जो सुख-दुःख आदि का आभास होता है वह भी नित्य नहीं है, शाश्वत नहीं है एवं भिन्न प्राणियों को भिन्न-भिन्न अनुभूतियाँ होती हैं। यह सब उसकी मानसिक स्थिति के कारण है। मन भी चूँकि निरन्तर बदलता रहता है

अतः वह भी विश्वास योग्य नहीं है। यह शरीर भी विश्वास योग्य नहीं है। कब पैदा होता है, कब मर जाता है, कब जवानी, बुढ़ापा आता है, कब सुख-दुःख आता है, कब किससे बैर, घृणा, दुश्मनी, प्रेम होता है, कब अपने ही पराये हो जाते हैं, कब पराये भी अपने हो जाते हैं, कब कर्म का फल मिलता है, कब नहीं मिलता आदि इस साकार जगत् से जुड़े हुए अनेक प्रश्न हैं जिनका कोई समाधान आज तक किसी मनस्विद् द्वारा नहीं खोजा गया है। ऐसी सृष्टि जिसमें कुछ भी निश्चित नहीं है, उसे मिथ्या नहीं कहा जाये तो और क्या कहा जाये? इसका कारण है इस साकार जगत् की अपनी कोई सत्ता नहीं है। यह उस चैतन्य, निराकार, सूक्ष्म का ही परिवर्तित रूप है।

परिवर्तन ही इसका स्वभाव है अतः यह विश्वसनीय नहीं हो सकता। विश्वसनीय वही परमात्मा है जो, चैतन्य, निराकार एवं सूक्ष्म है, नित्य है, केवल उसी पर भरोसा किया जा सकता है कि वह आज भी है व आगे भी वही रहेगा। सृष्टि की उत्पत्ति का कारण कभी नष्ट नहीं होता। सृष्टि नष्ट हो भी जाय तो मूल तत्व कभी नष्ट नहीं होता।

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यदि स्वर्ण है तो आभूषण नए बन जायेंगे। अतः जो नष्ट होने वाले आभूषण हैं उनमें विश्वास न कर। उस नित्य ब्रह्म में विश्वास करने वाले की पुनः उत्पत्ति नहीं होती क्योंकि उत्पत्ति का कारण जो साकार में आसक्ति थी वह नष्ट हो गई, निराकार आत्मा को बहुमूल्य जान लिया, फिर उत्पत्ति किसलिए? जब महल मिल गये तो झोंपड़े में कौन वापस आना पसन्द करेगा? अष्टावक्र कहते हैं कि इस साकार जगत् से मुक्ति के लिए यही तत्व-उपदेश है, सारभूत उपदेश है।

सूत्र: 19
यथैवादर्शमध्यस्थे रूपेऽन्तः परितस्तु सः।
तथैवास्मिन् शरीरेऽन्तः परितः परमेश्वरः।। 19।।

अर्थात: जिस तरह दर्पण अपने में प्रतिबिम्बित रूप के भीतर और बाहर स्थित है, उसी तरह परमात्मा इस शरीर के भीतर और बाहर स्थित है।
व्याख्या: अष्टावक्र इसमें आत्म स्वरूप को और स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि-परमात्मा कोई व्यक्ति जैसा नहीं है कि एक ही स्थान पर बैठकर सारी सृष्टि का सम्राट की भाँति नियंत्रण करता हो बल्कि वह सर्वत्र व्याप्त है।

सृष्टि का कोई कण ऐसा नहीं है जिसमें इसकी उपस्थिति न हो। मनुष्य-शरीर में ही यह भीतर बाहर व्याप्त है। शरीर में वह आत्म रूप में एवं सृष्टि में परमात्मा रूप में वही चैतन्य व्याप्त है। दर्पण में देखा गया प्रतिबिम्ब अपना ही है उसी प्रकार आत्मा में भी अपना ही प्रतिबिम्ब दिखाई देता है।

सूत्र: 20
एकं सर्वगतं व्योम बहिरन्तर यथा घटे।
नित्यं निरन्तरं ब्रह्म सर्वभूतगणो तथा।। 20।।

अर्थात: जिस प्रकार सर्वव्यापी एक आकाश घट के भीतर और बाहर स्थित है, उसी तरह नित्य और निरन्तर ब्रह्म सब भूतों में स्थित है।
व्याख्या: अष्टावक्र जी इस उदाहरण द्वारा और स्पष्ट करते हैं कि संसार के सब भूतों में, सृष्टि के समस्त पदार्थों में वह नित्य और निरन्तर ब्रह्म वैसे ही स्थित है जैसे घट के बाहर और भीतर एक ही सर्वव्यापी आकाश स्थित है।

जिस प्रकार शरीर के भीतर और बाहर आकाश है एवं दोनों आकाश में भेद नहीं है, उसी प्रकार भीतर व बाहर एक ही ब्रह्म व्याप्त है। शरीर में जो जीवन है, चेतना है, हलचल है वह उसी आत्मतत्व की है जिसके निकलने पर वह निर्जीव हो जाता है। यदि सजीवता स्वयं शरीर की होती तो मनुष्य की मृत्यु होती ही नहीं।

जिस प्रकार मशीन के पुर्जे बदल-बदल कर उसकी उम्र बढ़ाई जा सकती है उसी प्रकार शरीर के अंग बदल-बदल कर उसे हजारों वर्ष जीवित रखा जा सकता था किन्तु उस आत्मा के निकल जाने पर इन अंगों को बदलना भी व्यर्थ हो जाता है। आत्मा के रहते ही यह कार्य किया जा सकता है। अतः यह आत्म तत्व ही मुख्य है, शरीर नहीं।-क्रमशः (हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
(साभार अष्टावक्र गीता)

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