गीता-माधुर्य-33
योगेश्वर कृष्ण ने अपने सखा गांडीवधारी अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में जब मोहग्रस्त देखा, तब कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग का गूढ़ वर्णन करके अर्जुन को बताया कि कर्म करना ही तुम्हारा कर्तव्य है, फल तुम्हारे अधीन है ही नहीं। जीवन की जटिल समस्याओं का ही समाधान करना गीता का उद्देश्य रहा है। स्वामी रामसुखदास ने गीता के माधुर्य को चखा तो उन्हें लगा कि इसका स्वाद जन-जन को मिलना चाहिए। स्वामी रामसुखदास के गीता-माधुर्य को हिफी फीचर (हिफी) कोटि-कोटि पाठकों तक पहुंचाना चाहता है। इसका क्रमशः प्रकाशन हम कर रहे हैं।
-प्रधान सम्पादक
सात्त्विक त्याग का क्या स्वरूप है?
हे अर्जुन! नियत कर्म करना मनुष्य का आवश्यक कर्तव्य है-ऐसा कर्मों की आसक्ति और फलकी इच्छा का त्याग करके नियत कर्मोंको करना सात्त्विक त्याग है।। 9।।
त्याग करने वाला मनुष्य कैसा होता है भगवन्?
वह सकाम और निषिद्ध कर्मोंका त्याग तो करता है, पर द्वेषपूर्वक नहीं और शास्त्रनियत कर्तव्य कर्मों का आचरण तो करता है, पर रागपूर्वक नहीं। ऐसा बुद्धिमान् त्यागी मनुष्य सन्देह रहित होकर अपने स्वरूप में स्थित रहता है।। 10।।
कर्मों को करने में राग न हो और छोड़ने में द्वेष न हो- इतनी झंझट करें ही क्यों? कर्मोंका सर्वथा त्याग ही कर दें, तो?
देहधारी मनुष्य के द्वारा कर्मों का स्वरूप से सर्वथा त्याग हो ही नहीं सकता। इसलिये जो कर्मों के फल का त्याग करने वाला है, वही त्यागी कहलाता है।। 11।।
कर्मफल कितने तरह का होता है भगवन्?
कर्मफल तीन तरह का होता है- अनुकूल परिस्थिति का आना इष्ट है, प्रतिकूल परिस्थिति का आना अनिष्ट है तथा जिसमें कुछ भाग इष्ट का और कुछ भाग अनिष्ट का होता है, वह मिश्र है। ये तीनों कर्मफल फल की इच्छा रखकर कर्म करने वालों को मरने के बाद भी होते हैं, परन्तु फलेच्छा का त्याग करने वालों को कहीं भी नहीं होते।
जिस कर्म का फल तीन तरह का होता है, उस कर्म के होने में कौन हेतु बनता है?
हे महाबाहो! कर्मों का अन्त करने वाले सांख्य-सिद्धान्त में सम्पूर्ण कर्मों के सिद्ध होने में पाँच हेतु बताये हैं, इनको तू मुझसे समझ।। 12-13।।
शरीर, कर्ता, तरह-तरह के करण और उनकी विविध प्रकार की अलग-अलग चेष्टाएँ तथा संस्कार- ये पाँच हेतु हैं। मनुष्य शरीर, वाणी और मन के द्वारा शास्त्र विहित अथवा शास्त्र निषिद्ध जो कुछ भी कर्म आरम्भ करता है, उसके ये पाँचों हेतु होते हैं।। 14-15।।
कर्मों के होने में ये पाँच हेतु बताने का क्या तात्पर्य है?
कर्म तो शरीर, वाणी और मन से ही होते हैं, आत्मा में कर्तापन नहीं है। परन्तु जो कर्मों के विषय में आत्मा को कर्ता मानता है, वह दुर्मति ठीक नहीं समझता, क्योंकि उसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है।। 16।।
आत्मा को अकर्ता मानने से क्या होता है भगवन्?
जिसमें ‘मैं करता हूँ’- ऐसा अहंकृत भाव नहीं है और जिसकी बुद्धि कर्मों के फल में लिप्त नहीं है, वह सम्पूर्ण प्राणियों को मारकर भी न तो मारता है और न बँधता है।। 17।।
जब कर्मों के साथ आत्मा का सम्बन्ध नहीं है तो फिर कर्म किसकी प्रेरणासे होते हैं?
ज्ञान, ज्ञेय और परिज्ञाता- इन तीनों से कर्मप्रेरणा होती है तथा करण, कर्म और कर्ता-इन तीनों से कर्मसंग्रह होता है।। 18।।
कर्म प्रेरणा और कर्म संग्रह में मुख्य कौन हैं और उनके खास-खास भेद क्या हैं भगवन्?
गुणोंके सम्बन्ध से प्रत्येक पदार्थ के भिन्न-भिन्न भेदों की गणना करने वाले शास्त्र में गुणों के अनुसार ज्ञान, कर्म और कर्ता के तीन-तीन मुख्य भेद कहे गये हैं, उनको भी तू ठीक तरहसे सुन।। 19।।
ज्ञान के तीन भेदों में से सात्त्विक ज्ञान कौन-सा है?
जिस ज्ञान से साधक सम्पूर्ण विभक्त प्राणियों में विभाग रहित एक अविनाशी सत्ता को देखता है, वह ज्ञान सात्त्विक है।। 20।।
राजस ज्ञान कौन-सा है भगवन् ?
जिस ज्ञानसे मनुष्य अलग-अलग सम्पूर्ण प्राणियों में भाव (सत्ता) को अलग-अलग देखता है, वह ज्ञान राजस है।। 21।।
तामस ज्ञान कौन-सा है?
जो उत्पन्न होने वाले शरीर में ही पूर्ण की तरह आसक्त है तथा जो युक्ति संगत नहीं है, तात्त्विक ज्ञान से रहित है और तुच्छ है, वह ज्ञान तामस है।। 22।।
तीन तरह के कर्मों में सात्त्विक कर्म कौन-सा है भगवन्?
जो नियत कर्म फलेच्छारहित मनुष्य के द्वारा राग-द्वेष और कर्तृत्व-अभिमान से रहित होकर किया जाय, वह सात्त्विक है।। 23।।
राजस कर्म कौन-सा है?
जो भोगों की इच्छा वाले मनुष्य के द्वारा अहंकार अथवा परिश्रम पूर्वक किया जाता है, वह राजस है।। 24।।
तामस कर्म कौन-सा है?
जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और अपनी सामथ्र्य को न देख कर मोहपूर्वक आरम्भ किया जाता है, वह तामस है।। 25।।
तीन तरह के कर्ताओं में सात्त्विक कर्ता कौन-सा है भगवन्?
जो कर्ता आसक्ति रहित, अहंकार रहित, धैर्य और उत्साह से युक्त तथा कर्मोंकी सिद्धि असिद्धि में निर्विकार रहता है, वह सात्त्विक है।। 26।।
राजस कर्ता कौन-सा है?
जो कर्ता रागी, कर्म फल की इच्छा वाला, लोभी, हिंसा के स्वभाव वाला, अशुद्ध और हर्ष-शोक से युक्त है, वह राजस है।। 27।।
तामस कर्ता कौन-सा है?
जो कर्ता असावधान, कर्तव्य-अकर्तव्य की शिक्षा से रहित, ऐंठ-अकड ़वाला, जिद्दी, कृतघ्नी, आलसी, विषादी और दीर्घसूत्री (थोड़े समयमें होनेवाले काममें भी ज्यादा समय लगा देनेवाला) है, वह तामस है।। 28।।
ज्ञान, कर्म और कर्ता के तीन-तीन भेद तो आपने बता दिये, अब इनके सिवाय और किन-किन के भेदों को जानने की आवश्यकता है?
हे धनंजय! कर्म-संग्राहक करणों में बुद्धि और धृति (धारणा शक्ति) मुख्य है, जिनके भेदों को जानने की बहुत आवश्यकता है। अतः अब तू गुणों के अनुसार बुद्धि और धृति के भी तीन प्रकार के भेद अलग-अलग रूप से सुन, जिनको मैं पूर्णरूप से कहूँगा। हे पृथानन्दन! जो बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्ति को, कर्तव्य और अकर्तव्य को भय और अभय को तथा बन्धन और मोक्ष को ठीक-ठीक जानती है, वह सात्त्विकी है।। 29-30।। (ंहिफी) (क्रमशः साभार)
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)