अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

गीता के पढ़ने और सुनने से भी मुक्ति

गीता-माधुर्य-35

 

गीता-माधुर्य-35
योगेश्वर कृष्ण ने अपने सखा गांडीवधारी अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में जब मोहग्रस्त देखा, तब कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग का गूढ़ वर्णन करके अर्जुन को बताया कि कर्म करना ही तुम्हारा कर्तव्य है, फल तुम्हारे अधीन है ही नहीं। जीवन की जटिल समस्याओं का ही समाधान करना गीता का उद्देश्य रहा है। स्वामी रामसुखदास ने गीता के माधुर्य को चखा तो उन्हें लगा कि इसका स्वाद जन-जन को मिलना चाहिए। स्वामी रामसुखदास के गीता-माधुर्य को हिफी फीचर (हिफी) कोटि-कोटि पाठकों तक पहुंचाना चाहता है। इसका क्रमशः प्रकाशन हम कर रहे हैं।
-प्रधान सम्पादक

उस नैष्कम्र्य सिद्धि को प्राप्त करने का क्या क्रम है?
अन्तःकरण की शुद्धि रूप सिद्धि को प्राप्त हुआ मनुष्य ब्रह्म को, जो कि ज्ञान की परा निष्ठा है, जिस क्रम से प्राप्त होता है, उस क्रम को तुम मुझसे संक्षेप में ही समझो। जो सात्त्विकी बुद्धि से युक्त वैराग्य के आश्रित, एकान्त में रहने के स्वभाव वाला और नियमित भोजन करने वाला साधक धैर्यपूर्वक इन्द्रियों का नियमन करके, शरीर-वाणी-मन को वश में करके, शब्दादि विषयों का त्याग करके और राग-द्वेष को छोड़कर निरन्तर परमात्मा के ध्यान में लगा रहता है, वह अहंकार, हठ, घमण्ड, काम, क्रोध और परिग्रह (भोगबुद्धि से वस्तुओं के संग्रह) का
त्याग करके तथा ममता रहित एवं शान्त होकर ब्रह्म प्राप्ति का पात्र हो जाता
है।। 50-53।।
ऐसा पात्र होने पर क्या होता है भगवन्?
वह ब्रह्मभूत-अवस्था को प्राप्त प्रसन्न मन वाला साधक न तो किसी के लिये शोक करता है और न किसी की इच्छा करता है तथा उसका सम्पूर्ण प्राणियों में समभाव हो जाता है। ऐसे साधक को मेरी पराभक्ति प्राप्त हो जाती है।। 54।।
पराभक्ति प्राप्त होने से क्या होता है?
उस पराभक्ति से वह मैं जो कुछ हूँ और जैसा हूँ- इस तरह मुझे तत्त्व से जानकर तत्काल मुझमें प्रविष्ट हो जाता है।। 55।।
आपकी प्राप्ति का और भी कोई बढ़िया उपाय है क्या?
हाँ, बहुत बढ़िया उपाय है।
वह क्या है महाराज ?
जो अनन्य भाव से मेरा आश्रय लेता है, वह भक्त सदा सब कर्म करता हुआ भी मेरी कृपा से निरन्तर रहने वाले अविनाशी पद को प्राप्त हो जाता है।। 56।।
तो मुझे क्या करना चाहिये ?
भैया ! तू केवल मेरे परायण होकर सम्पूर्ण कर्मों को चित्त से मेरे अर्पण कर दे अर्थात् सम्पूर्ण कर्म, पदार्थ आदि से अपनापन हटा ले और तू समता को धारण करके निरन्तर मुझ में मनवाला हो जा।। 57।।
आपमें मनवाला होने से क्या होगा ?
मुझमें मनवाला होने से तू मेरी कृपा से सम्पूर्ण विघ्न- बाधाओं को तर जायगा। परन्तु अगर तू अहंकार के कारण मेरी बात नहीं मानेगा तो तेरा पतन हो
जायगा।। 58।।
पतन कैसे होगा?
अहंकार का आश्रय लेकर तूने युद्ध न करने का जो निश्चय किया है, तेरा वह निश्चय झूठा है क्योंकि तेरा क्षात्र स्वभाव तुझे युद्ध में लगा ही देगा। हे कुन्तीनन्दन ! अपने स्वभावजन्य कर्म से बँधा हुआ तू मोह के कारण जो युद्ध नहीं करना चाहता, उसको तू क्षात्र स्वभाव के परवश होकर करेगा।। 59-60।।
वह क्षात्र स्वभाव कैसे युद्धरूप कर्म करायेगा महाराज ?
हे अर्जुन ! अन्तर्यामी ईश्वर सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में स्थित है। वह अपनी मायासे शरीर रूपी यन्त्र पर आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को उनके स्वभाव के अनुसार घुमाता है।। 61।।
इस परवशता से निकलने का उपाय क्या है?
हे भरतवंशी अर्जुन ! तू सर्वभाव से उस अन्तर्यामी ईश्वर की ही शरण में चला जा। उसकी कृपा से तुझे संसार से सर्वथा उपरति और अविनाशी परमपद की प्राप्ति हो जायगी। मैंने यह गोपनीय-से-गोपनीय शरणागति रूप ज्ञान तुझसे कह दिया। अब तू इसपर अच्छी तरह से विचार करके जैसा चाहता है, वैसा
कर।। 62-63।।
मैं तो अपनी इच्छा के अनुसार कुछ नहीं करना चाहता भगवन्! आप ही बताइये कि मैं क्या करूँ ?
तब तू मेरे इस सम्पूर्ण गोपनीय-से-गोपनीय परम वचन को फिर सुन। तू मेरा अत्यन्त प्यारा है, इसलिये मैं तेरे हितकी बात कहूँगा।। 64।।
वह हित की बात क्या है भगवन् ?
तू मेरा भक्त हो जा, मुझमें मनवाला हो जा, मेरा पूजन कर और मुझे ही नमस्कार कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त हो जायगा-यह मैं तेरे सामने सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ, क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्यारा है।। 65।।
अगर मैं ऐसा न कर पाऊँ तो भगवन् ?
सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर तू केवल एक मेरी शरण प्राप्त कर। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा। तू चिन्ता मत कर।। 66।।
यह तो आपने बहुत सुगम और बढ़िया बात बतायी भगवन्! इस बात को मैं सबसे कह सकता हूँ क्या ?
नहीं-नहीं भैया! इस अत्यन्त गोपनीय बातको असहिष्णु मनुष्य को मत
कहना, जो मेरा भक्त नहीं है, उसको भी कभी मत कहना जो इस बात को सुनना नहीं चाहता, उसको भी मत कहना और जो मुझमें दोष दृष्टि रखता है उसको भी मत कहना।। 67।।
पर इसके सिवाय आपने जो और बातें कही हैं, उनको किससे कहना चाहिये ?
मेरे भक्तों से कहना चाहिये। जो मनुष्य मेरी पराभक्ति के उद्देश्य से इस परम गोपनीय गीता-ग्रन्थ को मेरे भक्तों में कहेगा, वह निःसन्देह मुझे ही प्राप्त हो जायगा। इतना ही नहीं, उसके समान मेरा अत्यन्त प्रिय कार्य करने वाला भी मनुष्यों में
कोई नहीं होगा और इस भूमण्डल पर उसके समान मेरा प्रिय भी कोई नहीं
होगा ।। 68-69।।
अगर कोई ऐसा कार्य न कर सके तो ?
जो मेरे और तुम्हारे इस धर्ममय संवाद का अध्ययन भी करेगा, उसके द्वारा मैं ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊँगा- ऐसा मेरा मत है।। 70।।
कोई अध्ययन न कर सके तो भगवन् ?
दोष रहित जो मनुष्य केवल श्रद्धा पूर्वक मेरे इस उपदेश को सुन भी लेगा, वह भी सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर पुण्यकारियों के ऊँचे लोकों को प्राप्त हो
जायगा।। 71।।
हे पार्थ! मैं तुमसे यह पूछता हूँ कि क्या तुमने इस उपदेश को एकाग्रचित्त से सुना? और हे धनंजय ! क्या तुम्हारा अज्ञान से उत्पन्न मोह नष्ट हुआ ?।। 72।।
अर्जुन बोले- हे अच्युत! मेरा मोह नष्ट हो गया है और स्मृति प्राप्त हो गयी है, पर यह सब हुआ है आपकी कृपा से, उपदेश सुनने से नहीं! मैं सन्देह रहित होकर स्थित हूँ। अब मैं आपकी आज्ञाका पालन करूँगा।। 73।।
संजय बोले- हे राजन् ! इस प्रकार मैंने भगवान् वासुदेव और महात्मा अर्जुन का यह रोमांचकारी अद्भुत संवाद सुना।। 74।। (ंहिफी) (क्रमशः साभार)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

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