अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

अलग-अलग मतों से परे है सत्य

अष्टावक्र गीता-31

 

अष्टावक्र कहते हैं कि ऋषि, योगी और साधु अलग-अलग मत बताते हैं। इससे सत्य अलग होगा क्योंकि जब भिन्नताएं हैं तो सत्य कैसा। सत्य जब समझ में आएगा तब मोक्ष मिलेगा।

अष्टावक्र गीता-31

सूत्र: 3
अनित्यं सर्वमेवेदं तापत्रितयदूषितम।
असारं निन्दितं हेयमिति निश्ंिचत्य शाम्यति ।। 3।।
अर्थात: यह सब अनित्य है, तीनों पापों से दूषित है, सारहीन है, निन्दित है, हेय है। ऐसा निश्चित होने पर शान्ति प्राप्त होती है।
व्याख्या: अष्टावक्र ज्ञानी हैं , आत्मानन्द के सुख में अवस्थित हैं जो नित्य है, निर्दोष है अतः उनको ये अनित्य, क्षण भंगुर सुख प्रिय नहीं लगते। सूरदास ने कहा है, ‘जिन रसना अंबुज फल चाख्यो, क्यों करील फल खावे।’ इसलिए वे कहते हैं कि ये सांसारिक सुख, भोग सब अनित्य हैं, सदा रहने वाले नहीं हैं, चार दिन की चाँदनी मात्र हैं, ये विनाशी हैं, नष्ट होंगे ही, ये आध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक तीनों प्रकार के तापों से दूषित हैं। इनमंे सार कुछ भी नहीं है। बार-बार जन्म लेना व मर जाना, बार-बार उन्हीं कर्मों को भोगना, यश-अपयश, लाभ-हानि, सुख-दुःख, पीड़ा, क्लेश आदि का हर जन्म में हिसाब रखना, वही बचपन, जवानी, बुढ़ापा, स्त्री, पुत्र, सगे सम्बन्धियों का अच्छा-बुरा अनुभव करना इसमें क्या सार है? इसलिए जो सारहीन है, उसे प्रशंसनीय कैसे कहा जाये? वह तो निन्दा के योग्य है, हेय है, इसकी कोई उपयोगिता नहीं है जिस व्यक्ति को ऐसा निश्चय हो जाता है वही आत्मज्ञान का अधिकारी है एवं आत्मज्ञानी को ही शान्ति प्राप्त होती है। जो संसार के विषयों में रुचि लेता है, जो इनके भोगों से आनन्दित है, जिसे यह संसार ही सारभूत दिखाई देता है, जो
संसार की भौतिक उन्नति को ही उपयोगी समझता है वह उस आत्मज्ञान के सुख से वंचित रह जाता है।
ऐसे व्यक्ति को सब कुछ मिल जाने पर भी शान्ति नहीं हो सकती। वह अशान्त, उद्विग्न ही रहता है। आत्मज्ञान ही शान्ति प्राप्त करने का उपाय है।

सूत्र: 4
कोऽसौ कालो वयः किं वा यत्र द्वन्द्वानि नो नृणाम।
तान्युपेक्ष्य यथा प्राप्तवर्ती सिद्धिमवाप्नुयात्।। 4।।
अर्थात: वह कौन सा काल है व कौन सी अवस्था है जिसमें मनुष्य को द्वन्द्व (सुख दुःखादि) न हों? उनकी उपेक्षा कर यथा प्राप्य वस्तुओं में सन्तोष करने वाला मनुष्य सिद्धि को प्राप्त होता है।
व्याख्या: सुख-दुःख, जीवन-मरण, लाभ-हानि, संघर्ष-शान्ति, पुरुष-प्रकृति, जड़-चेतन आदि अनेक प्रकार के द्वन्द्व पर ही आधारित है। यह विपरीत ध्रुवों के सहयोग से ही चलती है। ये द्वन्द्व किसी भी कला में (भूत, भविष्य, वर्तमान) तथा किसी भी अवस्था में कभी भी शान्त नहीं हुए हैं, ये सदा रहेंगे ही। ये द्वन्द्व एक ही सिक्के के दो पक्षों की भाँति हैं, या तो दोनों रहेंगे या दोनों हटेंगे। एक को मिटाकर दूसरे को रखना सम्भव नहीं है। इन द्वन्द्वों का सृष्टि में अस्तित्व नहीं है बल्कि मनुष्य की वासना, तृष्णा, स्वार्थ आदि के कारण वह सृष्टि का अच्छे-बुरे में भेद करता है। वह बुरे को हटाकर अच्छा लाना चाहता है इसीलिए संघर्ष, अशान्ति, लोभ, मोह आदि अनेक बुराइयों का आरम्भ होता है। अच्छा बुरे के कन्धों पर ही खड़ा है। यदि बुरा न हो तो अच्छों का भी अस्तित्व मिट जायेगा। मरीजों के कारण ही डाक्टरों का अस्तित्व है, चोरों-डाकुओं के कारण ही पुलिस एवं न्यायालय हैं, पापियों के आधार पर ही सन्त-महात्मा टिके हुए हैं, मृत्यु पर ही जीवन टिका है। नैतिक आदमी दोनों में भेद करके चलता है, बुरे को हटाकर अच्छे को लाना चाहता है। इसलिए अध्यात्म दोनों को ईश्वरीय मानकर उन्हें स्वीकार करने की बात कहता है कि ये भेद मनुष्य के मन के कारण दिखाई देते हैं। मन के पार कोई भेद नहीं है, सभी भेद समाप्त होकर एकत्व का अनुभव होने लगता है। यही ज्ञान है। जब तक भेद दिखाई दे तब तक अज्ञान है। इसलिए अष्टावक्र कहते हैं कि इनकी उपेक्षा कर यथा प्राप्य वस्तुओं में सन्तोष करने वाला ही आत्मसिद्धि को प्राप्त होता है, उसी को आत्मज्ञान होता है। सृष्टि में भेद-दृष्टि रखने वाले ज्ञान के अधिकारी नहीं हैं। बुद्ध ने भी ‘उपेक्षा’ शब्द का ही प्रयोग किया है। तन्त्र कहता है सब कुछ ईश्वरीय समझकर स्वीकार कर लेना है, भक्त कहता है अच्छा-बुरा, सुख-दुःख सब उसी का है, वही देता है अतः हमें उसकी आज्ञा समझकर स्वीकार करना है। भाषाएँ भिन्न-भिन्न हैं किन्तु अर्थ एक ही है कि द्वन्द्व को स्वीकार करना ही मुक्ति का मार्ग है।

सूत्र: 5
नाना मतं महर्षीणां साधूनां योगिनां तथा।
दृष्टवा निर्वेदमापन्नः को न शाम्यति मानवः।। 5।।
अर्थात: महर्षियों के, योगियों के एवं साधुओं के अनेक मत हैं। ऐसा देखकर उपेक्षा को प्राप्त हुआ कौन मनुष्य शान्ति को नहीं प्राप्त होता।
व्याख्या: दुनियाँ में विभिन्न प्रकार के मत हैं, विभिन्न मान्यताएँ हैं, विभिन्न प्रकार के सिद्धांत हैं, विभिन्न क्रिया-पद्धतियाँ एवं साधनाएँ हैं, किन्तु इनमें सत्य कहीं भी नहीं है। सत्य एक ही है एवं इसे उपलब्ध व्यक्ति भी सब एक ही मत के हो जाते हैं। बुद्धि एवं तर्क से कुछ भी नहीं किया जा सकता। दर्शन शास्त्रों के अध्ययन से एक भी प्रश्न का उत्तर नहीं मिल सकता। यदि इनमें सत्य होता तो इतने मत नहीं होते। सत्य सभी मतों, मान्यताओं, सिद्धांतों के पार है। ये मान्यतावादी, सिद्धान्तवादी, तर्कवादी सब बुद्धि को भ्रान्त करने वाले हैं इसलिए ज्ञान के मुमुक्षु को इन सबसे बचना चाहिए। अष्टावक्र ने पूर्व के सूत्र में द्वन्द्वों की उपेक्षा की बात कही तथा इस सूत्र में वे शास्त्रों एवं विभिन्न मतों की भी उपेक्षा की बात कहते हैं कि इन महर्षियों, साधुओं तथा योगियों के विभिन्न मत हैं। इसलिए ज्ञान-प्राप्ति की इच्छा रखने वालों को इन सबकी उपेक्षा करनी चाहिए तभी शान्ति सम्भव है। सत्य न शास्त्रों में है, न सिद्धांतों में। वह स्वयं के भीतर है, जिसे पाना ही ज्ञान है। उसी से होगी शान्ति। विभिन्न मतों एवं मान्यताओं के आधार पर बने हुए विभिन्न सम्प्रदाय अध्यात्म के लिए विष के समान हैं जो घाणी के बैल की भाँति निरन्तर अपने धर्म एवं सम्प्रदाय के घेरे में घूम रहे हैं, पहुँचते कहीं नहीं हैं। ज्ञानी इन सब घेरों से ऊपर उठकर एक आत्मा का अनुभव करता है तभी उसे शान्ति मिलती है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button