गीता-माधुर्य-32
योगेश्वर कृष्ण ने अपने सखा गांडीवधारी अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में जब मोहग्रस्त देखा, तब कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग का गूढ़ वर्णन करके अर्जुन को बताया कि कर्म करना ही तुम्हारा कर्तव्य है, फल तुम्हारे अधीन है ही नहीं। जीवन की जटिल समस्याओं का ही समाधान करना गीता का उद्देश्य रहा है। स्वामी रामसुखदास ने गीता के माधुर्य को चखा तो उन्हें लगा कि इसका स्वाद जन-जन को मिलना चाहिए। स्वामी रामसुखदास के गीता-माधुर्य को हिफी फीचर (हिफी) कोटि-कोटि पाठकों तक पहुंचाना चाहता है। इसका क्रमशः प्रकाशन हम कर रहे हैं।
-प्रधान सम्पादक
मन का तप कैसे होता है?
मन की प्रसन्नता, सौम्य भाव, मनन शीलता, मनका निग्रह और भावों की शुद्धि-यह मन का तप है।।16।।
उपर्युक्त तीन प्रकार का तप यदि परम श्रद्धा से युक्त फलेच्छारहित मनुष्यों के द्वारा किया जाता है तो वह तप सात्त्विक कहलाता है।। 17।।
राजस तप क्या होता है भगवन्?
जो तप अपने सत्कार, मान और पूजा के लिए अथवा दूसरों को दिखाने के भाव से किया जाता वह इस लोक में अनिश्चित और नाशवान् फल देने वाला तप राजस होता है।। 18।।
तामस तप क्या होता है?
जो तप मूढ़ता पूर्वक हठ से अपने को पीड़ा देकर अथवा दूसरों को कष्ट देने के लिए किया जाता है, वह तप तामस होता है।। 19।।
भगवन! अब यह बताइये कि दान तीन प्रकार का कैसे होता है?
दान देना कर्तव्य है- इस भाव से जो दान प्रत्युपकार की भावना से रहित होकर देश, काल और सुपात्र के प्राप्त होने पर दिया जाता है, वह दान सात्त्विक होता है।। 20।।
राजस दान क्या होता है?
दान प्रत्युपकार पाने के लिए अथवा फल की इच्छा रखकर ‘देना पड़ रहा है’ ऐसे दुःख पूर्वक दिया जाता है, वह दान राजस होता है।। 21।।
तामस दान क्या होता है?
जो दान बिना सत्कार के तथा अवज्ञा पूर्वक अयोग्य देश और काल में कुपात्र को दिया जाता है, वह दान तामस होता है।। 22।।
श्रद्धालु मनुष्य शास्त्र विहित यज्ञ, तप और दानकी क्रियाओं को कैसे आरम्भ करे महाराज?
ऊँ, तत् और सत्-इन तीनों नामों से जिस परमात्मा का निर्देश किया गया है, उसी परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में वेदों, ब्राह्मणों और यज्ञों की रचना की है। अतः परमात्मा का नाम लेकर ही क्रियाओं को आरम्भ करना चाहिये।। 23।।
‘ऊँ’ का प्रयोग कहाँ-कहाँ होता है भगवन्?
‘ऊँ’ का प्रयोग इस तरह से किया जाना चाहिए।
वैदिक सिद्धान्तों को मानने वाले मनुष्यों की शास्त्र विधि से नियत यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाएँ सदा ‘ऊँ’ का उच्चारण करके ही आरम्भ होती
हैं।। 24।।
‘ऊँ’ नाम से कहे जाने वाले परमात्मा के लिए ही सब कुछ है-ऐसा मानकर मुक्ति चाहने वाले मनुष्यों के द्वारा फल की इच्छा से रहित होकर अनेक प्रकार की यज्ञ, तप और दानरूप क्रियाएँ की जाती हैं।। 25।।
हे पार्थ ! परमात्मा के ‘ऊँ’ नामका प्रयोग सत्तामात्र में और श्रेष्ठ भाव में किया जाता है। प्रशंसनीय (श्रेष्ठ) कर्मके साथ भी ‘ऊँ’ शब्द जोड़ा जाता है। यज्ञ, तप और दान में मनुष्यों की जो स्थिति (निष्ठा, श्रद्धा) है, वह भी ‘ऊँ’ कही जाती है। कहाँ तक कहा जाय, उस परमात्मा के लिए जो भी कर्म किया जाता है, वह सब ‘ऊँ’ कहा जाता है।। 26-27।।
‘असत्’ कर्म कौन-से कहे जाते हैं भगवन् ?
हे पार्थ ! अश्रद्धा से किया हुआ हवन, दिया हुआ दान और तपा हुआ तप तथा और भी जो कुछ किया जाय, वह सब ‘असत्’ कहा जाता है। उनका फल न यहाँ होता है और न मरने के बाद ही होता है अर्थात् उसका कहीं भी सत् फल नहीं होता।। 28।।
।। ऊँ श्रीपरमात्मने नमः ।।
अठारहवाँ अध्याय
अर्जुन बोले- हे महाबाहो! हे अन्तर्यामिन्! हे केशिनिषूदन! मैं संन्यास (सांख्ययोग) और त्याग (कर्मयोग) का तत्त्व अलग-अलग जानना चाहता हूँ।। 1।।
भगवान् बोले- मैं संन्यास और त्याग के विषय में अन्य दार्शनिकों के चार मत बताता हूँ।
वे चार मत कौन-से हैं महाराज?
1-कई विद्वान् काम्य कर्मों के त्याग को संन्यास कहते हैं।
2-कई सम्पूर्ण कर्मों के फल के त्याग को त्याग कहते हैं।
3-कई विद्वान् कहते हैं कि कर्मों को दोष की तरह छोड़ देना चाहिये और-
4-कई कहते हैं कि यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिये।। 2-3।।
ये तो दार्शनिकों के चार मत हुए, पर आपका इस विषय में क्या मत है भगवन् ?
हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! संन्यास और त्याग- इन दोनों में से पहले तू त्याग के विषय में मेरा मत सुन; क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! त्याग तीन प्रकार का कहा गया है। यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत उनको यदि न करते हों तो जरूर करना चाहिये। कारण कि उनमें से एक- एक कर्म मनीषियों को पवित्र करनेवाला है।। 4-5।।
बस, इतने ही कर्म करने हैं क्या?
हे पार्थ! अभी कहे हुए यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा इनके सिवाय दूसरे भी शास्त्र विहित कर्मों को आसक्ति और फलेच्छा का त्याग करके करना चाहिये-यही मेरा निश्चित किया हुआ उत्तम मत है।। 6।।
जो तीन तरह का त्याग कहा गया है, उसका क्या स्वरूप है भगवन्?
नियत कर्मों का त्याग करना किसी के लिए भी उचित नहीं है। मोह के कारण इनका त्याग करना तामस त्याग है।। 7।।
राजस त्याग का क्या स्वरूप है ?
कर्तव्यकर्म करने में केवल दुःख ही है-ऐसा समझ कर शारीरिक क्लेश के भय से कर्मों का त्याग करना राजस त्याग है। ऐसा त्याग करने वाले को त्याग का फल-शान्ति नहीं मिलती।। 8।। (हिफी) (क्रमशः साभार)
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)